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________________ ध्यान की कसौटी १७९ छोटी-सी राई जितना घटना का भा पहाड़ जतना बनाकर दु:ख भागता चला जाता है। तनाव, बेचैनी, उदासी, अवसाद आदि जितने मानसिक अथवा आंतरिक दुःख हैं, वे दुःख चंचलता के परिणाम हैं। चंचलता कम हुई, दु:ख कम हो जाएंगे। वस्तुत: यह महत्वपूर्ण कसौटी है। अगर ध्यान सिद्ध हो रहा है तो दु:ख कम होने चाहिए। ध्यान की सिद्धि और दु:ख-बाहुल्य-दोनों का सह-अवस्थान नहीं हो सकता। ध्यान करने वाला व्यक्ति स्वयं निरीक्षण करे-मैंने जिस समय ध्यान शुरू किया, उस समय मानसिक दु:ख की स्थिति क्या थी और आज एक वर्ष बाद क्या स्थिति है? व्यक्ति व्यापार का प्रतिवर्ष लेखा-जोखा करता है। पहले दीपावली या रामनवमी के दिन व्यापारी वर्ग वर्ष भर के बहीखाते मिलाता था। आजकल मार्च एण्डिंग में लेखा-जोखा होता है। प्रत्येक व्यक्ति यह लेखा-जोखा करे-मैंने उस शिविर में उस दिन से ध्यान शुरू किया। आज एक वर्ष बीत गया है। मेरा मानसिक दु:ख कम हुआ या नहीं? अगर हुआ है तो मानना चाहिए-ध्यान सध रहा है और नहीं हुआ है तो समझना चाहिए-ध्यान अभी सधा नहीं है। दौर्मनस्य का अभाव ध्यान की पांचवी कसौटी है-दौर्मनस्य का अभाव। व्यक्ति के मन में अनेक इच्छाएं पैदा होती हैं। प्रत्येक इच्छा पूरी नहीं हो सकती। इच्छा में कोई बाधा आ गई, किसी दूसरे व्यक्ति ने बाधा डाल दी अथवा ऐसा कारण बन गया कि इच्छा पूरी नहीं हुई। इच्छा पूरी न होने के कारण मन में एक चोट लगती है और तब व्यक्ति के प्रति या स्थिति के प्रति दौर्मनस्य पैदा हो जाता है। प्रत्येक व्यक्ति के मन में आकांक्षा जागती है, इच्छा पैदा होती है। प्रकृति का नियम है-सारी इच्छाएं कभी किसी की पूरी नहीं होती। बहुत सारा दु:ख है, वह यथार्थ का नहीं है। इच्छा पैदा करे और वह पूरी न हो तो दुःख होता है। यह स्वाभाविक है कि इच्छा की विफलता से एक चोट लगती है और वह एक समस्या पैदा करती है, किन्तु ध्यान की कसौटी यह है कि इच्छा पूरी न होने की स्थिति में भी दौर्मनस्य का भाव न आए। ध्यानी व्यक्ति में यह चिंतन उभरना चाहिए-अमुक कार्य ठीक होता तो अच्छा रहता और न हुआ तो कोई बात नहीं है। वह उस इच्छा के लिए दु:खी न बने। एक मुनि भिक्षा के लिए गए। शुद्ध आहार नहीं मिला। खाली आ गए। किसी ने कहा-आज तो भिक्षा नहीं मिली है, आहार नहीं मिला है, क्या करोगे? मुनि का उत्तर होता है-मैं उपवास करूंगा। यह बहुत अच्छा हुआ। मैं उपवास करने वाला नहीं था किन्तु आज सहज तप हो जाएगा। मुनि ने यदि ऐसा चिंतन कर लिया, तो दुःख नहीं हुआ। पर स्वाभाविक परिवर्तन हो गया। यह स्थिति ध्यान-साधना के द्वारा ही सम्भव है। अन्यथा व्यक्ति विपरीत अर्थ लगा लेता है और दुःखी बन जाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003158
Book TitleTab Hota Hai Dhyana ka Janma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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