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तब होता है ध्यान का जन्म आलमारियां रखता है, और भी न जाने कितने साधन जुटाता है। धन को इतना सुरक्षित रखता है, फिर भी धन चला जाता है। बैंक में भी बहुत सुरक्षा-व्यवस्था रहती है, वहां भी चोरियां, डकैतियां हो जाती हैं। प्राण भी लूट लिए जाते हैं। जहां मूर्छा के जगत् में आदमी जीता है, वहां सुरक्षा की बात कैसे होगी?
जो धर्म को समझने वाला व्यक्ति है, उसका चिन्तन दूसरे प्रकार का होना चाहिए। धर्म को समझने का मतलब है सत्य को समझना। धर्म और सत्य-इन दोनों में कोई भेदरेखा नहीं खींची जा सकती। धर्म वास्तव में सत्य का ही एक पर्यायवाची नाम है। धर्म का एक अर्थ होता है वस्तु का स्वभाव । आचार्यों ने धर्म की परिभाषा करते हुए लिखा-वत्थुसहावो धम्मो-जो वस्तु का स्वभाव है, वह धर्म है। हमारी चेतना का जो स्वभाव है, उसका नाम है धर्म। वही तो सत्य है। चेतना में रहना, चेतना के स्वभाव में रहना धर्म में रहना है। वहां कोई मूर्छा है ही नहीं। जैसे ही व्यक्ति चेतना से बाहर आया, मूर्छा आ गई। धर्म है भीतर रहना
प्रसिद्ध घटना है। डायोजिनीज से पूछा गया-'धर्म की परिभाषा क्या है?' डायोजिनीज महान दार्शनिक संत था। उसने कहा-'अभी मुझे समय नहीं। तुम अपना पता नोट करा दो। समय होने पर मैं तुम्हें धर्म की परिभाषा लिखकर भेज दूंगा।'
उसने अपना पता दे दिया। डायोजिनीज ने कहा-'क्या यह तुम्हारा स्थायी पता
है?,
'स्थायी तो नहीं है। मैं रविवार के दिन अमुक स्थान पर चला जाता हूं।' उसने वहां का पता भी दे दिया।
'क्या यह तुम्हारा स्थायी पता है?'
'नहीं, मैं बृहस्पतिवार के दिन दूसरी ऑफिस में काम करने जाता हूं।' उसने उस ऑफिस का पता भी दे दिया।
डायोजिनीज ने तीन-चार बार इस प्रश्न को दोहराया। 'स्थाई पता, स्थाई पता-यह कहते हुए आदमी गुस्से में आ गया। एक बात तीन-चार बार पछी जाती है तो आदमी उबल जाता है, गुस्से में आ जाता है। उसने कहा-'क्या बार-बार पूछ रहे हो? यहां रहता हूं, यहां रहता हूं, यही मेरा स्थायी पता है'-यह कहते हुए उसने छाती पर मुक्का मारा। संत ने कहा-'यही धर्म की परिभाषा है। यहां रहना धर्म है और यहां से बाहर जाना अधर्म है।'
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