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तब होता है ध्यान का जन्म
एक बड़ा पहुंचा हुआ साधक एक बार श्मसान में गया । चिता की राख ली और उसे सूंघने लगा। लोग बोले- योगीप्रवर ! आपको क्या हो गया? यह क्या कर रहे हैं? आप चिता की राख को क्यों सूंघ रहे हैं?'
'भई ! एक रहस्य जानना है ।'
'क्या रहस्य जानना है?'
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'यहां दो मुर्दे जलाए गये थे। एक बड़ा अमीर था और दूसरा बड़ा गरीब था। जो अमीर था वह बहुत तेल लगाता था, इत्र लगाता था और भी न जाने कितने-कितने साधनों का उपयोग करता था । वह सजा-धजा रहता था । जो दरिद्र था, उसे खाने को रोटियां भी नहीं मिलती थीं। लोग मानते हैं कि वह बड़ा आदमी था और वह छोटा आदमी। मैं यह परखना चाहता हूं कि बड़े आदमी और छोटे आदमी की राख में क्या फर्क है? जो इतना तेल और इत्र लगाता था, उसकी राख सुगंधित होनी चाहिए और जो दरिद्र था, उसकी राख में दुर्गन्ध आनी चाहिए ।' 'क्या पाया आपने ?'
'पाया कुछ भी नहीं। दोनों की राख समान है, कोई अन्तर नहीं है। जैसी अमीर की राख, वैसी गरीब की राख । गन्ध में कोई अन्तर नहीं है तो फिर वह अमीर कैसे हुआ और वह गरीब कैसे हुआ ?'
संन्यासी के इस प्रश्न ने लोगों को निरुत्तर कर दिया ।
भेदरेखा खींचें
अन्तर दिखाई देना चाहिए। ध्यान शिविर में आया, जैसा पहले था, ध्यान शिविर के बाद वैसा का वैसा रहा तो गरीब और अमीर की राख एक जैसी बन गई । अन्तर होना चाहिए, एक भेदरेखा होनी चाहिए। पहले ऐसा था, अब इतना बदल गया । मात्रा कम अथवा अधिक हो सकती है । इतना तो होना चाहिए- पहले क्रोध बहुत करता था, अब कुछ कम हो गया। पहले उच्छृंखलता अधिक थी, अब इतनी कम हो गई । परिवर्तन तो आना ही चाहिए। पहले डर इतना लगता था, अब इतना कम हो गया । पहले पदार्थ के प्रति आकर्षण प्रबल था, अब कम हो गया। अगर इतना सा परिवर्तन नहीं होता है तो मानना चाहिए- ध्यान करना और न करना एक जैसा है । व्यक्ति स्वास्थ्य के लिए औषध लेता है। यदि दवा से स्वास्थ्य न सुधरे तो उस दवा का क्या अर्थ है ? क्षुध्
मिटाने के लिए भोजन करता है। वह भोजन भी करता चला जाए और भूख भी न मिटे तो खाने का मतलब क्या होगा ? आज धर्म के क्षेत्र में यही स्थिति बन रही है । जो धर्म करता है, वह भी वैसा है और जो धर्म नहीं करता है, वह भी वैसा है । व्यवहार में,
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