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तब होता है ध्यान का जन्म
मिलेगी-इतना तेज मत करो। इतना करोगे तो नुकसान होगा। यह सूचना भी उस केन्द्र को मिलती है। मस्तिष्क के एक भाग से क्रोध उपजता है, दूसरा भाग उसका नियमन भी करता है। मनोविज्ञान की भाषा
मनोविज्ञान की भाषा में या शरीरशास्त्र की भाषा में कहा जाता है-एक केन्द्र है क्रोध को प्रकट करने वाला और एक केन्द्र है क्रोध का नियमन करने वाला। एक केन्द्र का नाम है डोर्यो मिडियल न्यूक्लियस (Dorsomidial nucleus)। दूसरे का नाम है वेंट्रो मिडियल न्यूक्लियस (Ventromidial nucleus) । जब व्यक्ति क्रोध करता है तो इतना करता है कि करता चला जाता है। इस स्थिति में साधारण आदमी का हार्टफेल हो जाता है। उसे समझदार कहा जाता है, जो अपने गुस्से पर नियमन करना जानता है। प्रश्न है-वह समझदारी कहां से आ रही है? उसी मस्तिष्कीय केन्द्र से आ रही है। हाइपोथेलेमस का वह भाग उसमें इतना विवेक पैदा कर देता है कि इस समय तुम्हें इससे ज्यादा क्रोध नहीं करना है। अगर बीमारी की अवस्था है तो वह मस्तिष्क सूचना देगा-देखो, तुम आगे ही कमजोर हो, इस समय तुम्हें क्रोध करना ही नहीं है। यह सारा नियंत्रण और नियमन मस्तिष्क में से आ रहा है। क्रोध का उद्दीपन और क्रोध का नियमन दो अलग-अलग केन्द्र हैं। केवल क्रोध के ही नहीं, प्रत्येक विषय के केन्द्र बने हुए हैं। कर्मशास्त्र की भाषा
हम कर्मशास्त्र की भाषा में देखें तो यह बात यथार्थ प्रतीत होती है। एक है औदयिक भाव और दूसरा है क्षायोपशमिक भाव। औदयिक भाव क्रोध करने का, अहंकार और लोभ करने का उत्प्रेरक है। क्षायोपशमिक भाव उनका नियंत्रक है। जैसे ही औदयिक भाव प्रस्फुटित होता है, क्षायोपशमिक भाव की प्रेरणा मिलती है-यह मत करो। औदयिक भाव पर बराबर नियंत्रण कर रहा है क्षायोपशमिक भाव । यदि कोरा औदयिक भाव होता तो आदमी जी नहीं पाता। क्षायोपशमिक भाव है, वह बराबर नियमन कर रहा है इसीलिए मनुष्य की विवेक चेतना कषाय को निरंकुश नहीं बनने देती।
एक आदमी खाने का बहुत शौकीन है, वह खाता चला जाता है। उन क्षणों में भीतर से आवाज आती है-देखो, इतना खाना अच्छा नहीं है। वह क्षयोपशम की शक्ति उसको सचेत कर देती है। यह जो भीतर की आवाज है, उसे कहते हैं-आत्मा की आवाज। यह आत्मा की आवाज क्षयोपशम की आवाज है। यह क्षयोपशम का भाव सतत जागरूक रहता है। जहां कहीं भी अतिक्रमण होता है, तत्काल सावधान कर देता है, सचेत
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