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तब होता है ध्यान का जन्म
करूं? घर की इतनी दु:खद स्थिति है। श्वसुर का जैसा व्यवहार है, पति का भी वैसा ही व्यवहार है। बहुत बार इच्छा होती है आत्माहत्या करने की।
ऐसा लगता है-पारिवारिक जीवन में समस्याएं कम नहीं हैं। यह स्वाभाविक है कि जहां एक से दो हुए, वहां समस्याओं का अनचाहा ढेर लग जाता है। जब घरों में जाते हैं, देखते हैं तब ऐसा प्रतीत होता है-कितना बढ़िया मकान है, कितनी साज-सज्जा है, सुख-सुविधा की पर्याप्त सामग्री है। किन्तु जब उनकी समस्या सुनते हैं तब ऐसा लगता है-बाहर में जितना आकर्षण है, भीतर में उतना ही क्रन्दन है। बाहर से हंस रहे हैं, भीतर से रो रहे हैं। यह दु:ख कहीं बाहर से नहीं आया है, स्वयं आदमी पैदा कर रहा है। सास या बहू पैदा कर रही है। पुत्र अथवा पिता पैदा कर रहा है। वे लोग सचमुच दु:ख पैदा कर रहे हैं, स्वयं झगड़ा पैदा कर रहे हैं। कारण स्पष्ट है-चित्त की पवित्रता नहीं है। कलह वहां होता है
ध्यान के मुख्य दो परिणाम हैं-एकाग्रता और चित्त की निर्मलता। ध्यान से चित्त की मलिनता धुलती है, निर्मलता आती है। जहां निर्मलता होती है वहां झगड़ा नहीं होता। सारे संघर्ष और झगड़े मलिनता में पैदा होते हैं। चंचलता में समस्याएं उलझती हैं। एकाग्रता आती है, समस्याएं सुलझना शुरू हो जाती हैं। जहां मलिनता है वहां समस्याएं हैं। जहां निर्मलता है वहां समस्याएं मिटती चली जाती हैं। जहां मलिनता है वहां निषेधात्मक भाव ज्यादा होते हैं। जहां विधायक भाव है, वहां झगड़े नहीं होते, कलह नहीं होता, शांतिपूर्ण सहवास होता है। जहां निषेधात्मक विचार है, वहां कलह, संघर्ष और अशांति जन्म लेती है।
पौराणिक कहानी है--एक बार नारदजी जा रहे थे। मित्र ने पूछा-'ऋषिवर कहां जा रहे हैं।' ___ 'मैं अभी स्वर्ग में जा रहा हूं।
'स्वर्ग तो मुझे भी दिखा दें। आज सहज मौका मिल गया है। आप मुझे भी ले चलें।'
'अच्छा मित्र ! आओ, चलो।'
नारदजी ने मित्र को साथ ले लिया और स्वर्ग में पहुंच गए। स्वर्ग में पहुंचने के बाद नारदजी ने कहा- देखो, यह सामने कल्पवृक्ष है। इसकी छांव में बैठ जाओ। मुझे काम है, मैं दूसरी जगह जाकर आता हूं। तुम यहीं बैठे रहना।'
'अच्छा ऋषिवर मैं इसकी छांव में आराम कर लूंगा।'
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