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________________ तब होता है ध्यान का जन्म ऊपर एक देवदूष्य होता है, पवित्र वातावरण होता है, वहां देवों का जन्म होता है, उपपात होता है। ध्यान का भी उपपात-जन्म हर जगह नहीं होता। बहुत सारे लोग ध्यान करते हैं, वर्षों तक करते रहते हैं। वे निराशा के स्वर में कहते हैं-मन की चंचलता नहीं मिटी, मन उतना ही चंचल है, ध्यान पैदा नहीं हुआ। इसका कारण स्पष्ट है-ध्यान के अवतरण के लिए जो सामग्री चाहिए, वह सामग्री मिली नहीं और सामग्री की समग्रता के बिना ध्यान का अवतरण होता नहीं। अनासक्ति और ध्यान ___एक प्रश्न हमारे सामने है-पहले अनासक्ति का विकास हो या पहले ध्यान का प्रारंभ? अनासक्त हो जाएं तो फिर ध्यान करने की आवश्यकता ही क्या है? अनासक्त न हों तो ध्यान का जन्म नहीं होता। यह एक समस्या है। पहले क्या करें? कहां से प्रारंभ करें? एक विरोधाभास हमारे सामने आता है, किंतु इसका समाधाम बहुत जटिल नहीं है। जो व्यक्ति ध्यान का संकल्प करता है, उसके लिए अनासक्ति का संकल्प लेना भी जरूरी है, कषाय-विजय का संकल्प लेना भी जरूरी है, व्रत का धारण करना भी आवश्यक है, चाहे वह किसी भी मात्रा में हो। जो व्यक्ति ध्यान करना चाहता है,उसके लिए मन की चंचलता को कम करने का संकल्प जरूरी है, अपनी इन्द्रियों पर विजय पाना भी जरूरी है। ध्यान करने वाला इन संकल्पों के साथ ध्यान का प्रारंभ करता है तो ध्यान का अवतरण होने लग जाता है। इन संकल्पों के बिना केवल ध्यान करने बैठ जाएं तो संभव है कि तनाव मिट जाए, अमुक बीमारी मिट जाए किंतु ध्यान का अवतरण नहीं होता। व्यक्ति कायोत्सर्ग करेगा, तनाव मिटेगा पर ध्यान की उपलब्धि नहीं होगी। वास्तव में ध्यान का जो महत्त्व है, ध्यान के द्वारा हमारे जीवन में जो घटित होना चाहिए, वह नहीं होगा, मात्र एक छोटी-सी उपलब्धि हो जाएगी। इन उपलब्धियों के आकर्षण से आजकल ध्यान एक व्यवसाय बन गया। वह प्रलोभन के साथ भी चलता है। अनेक ऐसे ध्यान के गुरु हैं, जो शक्तिपात का प्रलोभन देते हैं। कहते हैं-शक्तिपात करते ही ध्यान होने लग जायेगा। इस प्रलोभन में सामान्य व्यक्ति फंस जाता है। जो समझदार होता है, वह प्रलोभन में नहीं फंसता।। संन्यासी गांव में आया। एक समझदार आदमी उसके पास गया। संन्यासी ने कहा-'तुम मेरे अनुयायी बन जाओ।' उसने पूछा- क्यों ? संन्यासी ने उत्तर दिया- 'मैं तुम्हें स्वर्ग का राज्य दूंगा।' प्रबुद्ध व्यक्ति बोला-'तुम मेरे अनुयायी बन जाओ, मैं तुम्हें दिल्ली का राज्य दूंगा।' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003158
Book TitleTab Hota Hai Dhyana ka Janma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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