SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 108
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ बाहर उजला भीतर मैला ९७ और तुमने गुस्सा ही नहीं किया।' साधक के कहा-'किसको दी?' 'आपको दी।' 'मैंने तुम्हारी गालियां ली ही नहीं तो फिर किसको दी? मेरे पास तो पहुंची ही नहीं है तुम्हारी गालियां?' 'मैंने आपको ही दी थी, पहंची कैसे नहीं?' 'अरे भैया ! विवाह शादी में, विशेष प्रसंगों में कोई विशेष चीज बनती है तो व्यक्ति पड़ोसियों को, मित्रों और सम्बन्धियों को हांती-पांती देता है। अब वह हाती घरवाला लेता है तो उसकी हो जाती है। वह कहता है-नहीं, मुझे नहीं चाहिए तो वह कहां पहुंचेगी?' 'बाबा ! जिस घर से आई है, वहीं चली जाएगी।' साधक ने मुस्कराते हुए कहा-'भाई! तुमने वह हांती मुझे दी, गालियां दीं, मैंने तुम्हारी गालियां नहीं स्वीकारी तो कहां पहुंची? मैंने गाली स्वीकारी ही नहीं तो मुझे दु:ख क्यों होगा? 'बाबा ! आप महान् हैं। मैं आपको समझ नहीं सका'-यह कहते हुए युवक ने अपना सिर बाबा के चरणों में झुका दिया। दु:ख होता है अन्तर्जगत् में जो गाली को स्वीकार कर लेता है, उसे दु:ख होता है और जो नहीं स्वीकारता, उसको कोई दु:ख नहीं होता। दु:ख पैदा होता है अन्तर्जगत् में । बाह्य जगत् में कोई दु:ख नहीं है। बाह्य जगत् में कठिनाइयां हो सकती हैं, पर दु:ख नहीं हो सकता। दु:ख वहां है, जहां वेदना है। जहां संवेदन नहीं है, वहां कोई दुःख नहीं है। संवेदन हमारे भीतर के जगत् में है। एक व्यक्ति में संवेदन जागा, उस संवेदन में से जो निकला और वह बाहर पहुंचा तो दुःख हुआ। संघर्ष, भय, दु:ख, उद्वेग-ये सब तब होते हैं, जब अन्तर्जगत् में कोई बात पहुंच जाती है। जब भीतर में कोई बात नहीं पहुंचती तब कोई समस्या नहीं होती। प्रसन्नचन्द्र राजर्षि ध्यान की मुद्रा में खड़े थे। राजा श्रेणिक भगवान महावीर को वंदना करने के लिए जा रहा था। मुनि ध्यान में लीन हैं। आगे-आगे एक व्यक्ति जा रहा था। नाम था दुर्मुख। उसने कहा-ध्यान किए खड़ा है। ढोंग रच रहा है। कुछ पता नहीं है। छोटे बच्चे को राज्य सौंप कर आ गया। पीछे से शत्रुओं ने आक्रमण कर दिया। राज्य की दुर्दशा हो रही है और यह खड़ा-खड़ा पाखंड रच रहा है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003158
Book TitleTab Hota Hai Dhyana ka Janma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy