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________________ ४५ मनोवृत्ति को बदला जा सकता है। पुरुषार्थं और निवृत्ति है परम पुरुषार्थ । निवृत्ति में अधिक पुरुषार्थ करना होता है, इसीलिए ध्यान से गर्मी बढ़ जाती है, उषमा बढ़ जाती है, वजन घट जाता है । प्रबल पुरुषार्थ है - मन को एकाग्र करना, मन की चंचलता का निरोध करना । ध्यान में मन की अशुभ प्रवृत्ति का निरोध किया, संवर हो गया और मन की शुभ प्रवृत्ति की निर्जरा हो गई । ध्यान के द्वारा शोधन और निरोध - दोनों होते हैं । केवल ध्यान ही नहीं, तपस्या के जितने प्रकार बतलाए गए हैं, उन सबसे निरोध भी होता हैं, संवर भी होता है, निर्जरा भी होती है । व्यापक सिद्धांत बहुत व्यापक है तपस्या का सिद्धांत । उदार दृष्टिकोण से प्रतिपादित हुआ है तपस्या का सिद्धांत । कहा गया- तुम शरीर, वाणी और मन-इन तीनों का प्रवर्तन करो तो ऐसा करो कि तुम्हारा शोधन हो जाए। इसका निवर्तन करो तो ऐसा करो कि तुम्हारा संवरण हो जाए। इस आधार पर हमारी पुरुषार्थ की क्रिया तीन भागों में बंट जाती है । एक प्रवर्तन वह है जो बाहर से गंदगी को खींचता है, बुरे विचारों और बुरे प्रभावों को खींचता है, बुरे कार्यों का आकर्षण करता है । एक प्रवर्तन वह है, जो केवल सत् का आकर्षण करता है, बुराई का आकर्षण नहीं करता । यह दूसरा प्रवर्तन हैं। तीसरा है निवर्तन । न सत् का और न असत् का ग्रहण । सत्-असत् - दोनों का निवर्तन | ध्यान करने वाला व्यक्ति असत् का निरोध करता है, वह संवर है । वह सत् का प्रवर्तन करता है, यह तपस्या है । उसके बाद वह बिलकुल निवृत्ति में चला जाता है, सत् और असत् - दोनों का निरोध कर देता है । हमारी प्रवृत्ति त्रि-आयामी है। इस प्रवृत्ति चक्र के साथ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003157
Book TitleNavtattva Adhunik Sandarbh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages66
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, B000, & B010
File Size3 MB
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