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नवतत्त्व : आधुनिक संदर्भ होना जरूरी है। अगर अज्ञाता नहीं है तो ज्ञाता क्या होगा? जीव है तो अजीव का होना जरूरी है। प्रतिपक्ष निश्चित होगा । मूर्त है तो अमूर्त भी होगा । अपने शुद्ध अस्तित्व की दृष्टि से जीव अमूर्त है । शरीरधारी होने के नाते वह मूर्त भी
संत बनना होगा
जैन दर्शन के अनुसार जीव पूरे शरीर में रहता है। आत्मा का द्रव्यमान है, आत्मा के असंख्य प्रदेश हैं । आत्मा में भार नहीं है । अमूर्त में भार नहीं होता। निष्कर्ष की भाषा होगी - वह ज्ञाता, जो अमूर्त भो है मूर्त भी है, आत्मा भी है, जीव भी है, जो भारहीन भी है, द्रव्यमान वाला भी है और चैतन्यमय है, उस ज्ञाता को जानना है । यदि हम उसे जानने के लिए बौद्धिक व्यायाम या तर्क का सहारा लेंगे तो अधिक दूर तक नहीं पहुंच पाएंगे। यदि हमें ज्ञाता को जानना है तो संत बनना होगा, वीतराग चेतना का विकास करना होगा। उसका सबसे बड़ा माध्यम है--ध्यान, इन्द्रिय-प्रतिसंलीनता । यदि यह तथ्य समझ में आ जाए तो ज्ञाता को जानने का संकल्प पूरा हो सकेगा, उसे जानने का रास्ता भी आसान बन पाएगा।
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