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नवतत्त्व : आधुनिक संदर्भ
चेतना | उस वीतराग चेतना की उपलब्धि के द्वारा ही ज्ञाता
को जाना जा सकता है ।
आश्चर्य है आस्तिक होना
आइंस्टीन के इस कथन,
'मैं संत होना चाहता हूं,' का अर्थ है - मैं वीतरागता की साधना करने वाला होना चाहता हूं । जो संत नहीं होता, वह ज्ञेय को जानता है, ज्ञाता को नहीं जानता । आज ज्ञेय को जानते - जानते आदमी कहीं भी रुक नहीं पा रहा है । अपने आप में ठहरने के लिए वीतरागता की साधना करना जरूरी है ।
ध्यान का मुख्य उद्देश्य है - ज्ञाता को जानने वाली चेतना का विकास | जितने वैज्ञानिक उपकरण हैं, वे स्थूल को जानते हैं और एक सीमा तक सूक्ष्म को भी जानते हैं । किन्तु परमसूक्ष्म को जानने वाले उपकरण निर्मित नहीं हो पाए हैं। उस परम सूक्ष्म या अमूर्त को केवल वीतरागी चेतना के द्वारा ही जाना जा सकता है । इसीलिए अनेक महर्षियों ने वीतरागी चेतना की साधना की, उसके द्वारा आत्मा का साक्षात्कार किया । उन्होंने कहा - ज्ञाता है, आत्मा है । आत्मा का निरूपण करना बहुत कठिन है । इन्द्रिय जगत् में जीने वाला आत्मा की बात करे, यह कैसे संभव हो सकता है ? इसीलिए नास्तिकता को बल मिला। मैं तो यह मानता हूं-नास्तिक होना आश्चर्य नहीं है, आश्चर्य है आस्तिक होना ।
आत्मा : साकार या अनाकार
जिन लोगों ने बीतरागी चेतना को स्वीकार किया, समझा, उन्होंने आत्मा को स्वीकार किया, उसे देखा, उसका साक्षात्कार किया । निश्चय नय की भाषा में कहें तो आत्मा
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