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________________ 154 चौबीस तीर्थंकर अपने इन्हीं कतिपय सिद्धातों का प्रचार कर भगवान ने धर्म को संकीर्ण परिधि से युक्त करके उसे जीवन के प्रत्येक क्षेत्र से सम्बद्ध कर दिया। श्रेष्ठ जीवनादर्शों का समुच्चय ही धर्म के रूप में उनके द्वारा स्वीकृत हुआ। भगवान के सदुपदेशों का व्यापक और गहन प्रभाव हुआ। परिणामत: जहाँ मनुष्य को आत्म-कल्याण का मार्ग मिला, वहीं समाज भी प्रगतिशील और स्वच्छ हुआ। स्त्रियों के लिए भी आत्मोत्कर्ष के मार्ग को भगवान ने प्रशस्त किया और उन्हें समान स्तर पर अवस्थित किया। इस प्रकार व्यक्ति और समग्र दोनों को भगवान की प्रमिभा व ज्ञान-गरिमा से लाभान्वित होने का सुयोग मिला। अपने सर्वजनहिताय और विश्व मानवता के दृष्टिाकेण के कारण प्रभु अपनी समग्र केवली चर्या में सतत भ्रमणशील ही बने रहे और अधिकाधिक जनता के कल्याण के लिए सचेष्ट रहे। गोशालक का उद्धार भगवान का 27वाँ वर्षावास श्रावस्ती नगर में था। संयोग से दुष्ट प्रयोजन से तेजोलेष्या की उपासना में लगा हुआ गोशालक भी उन दिनों श्रावस्ती में ही था। लगभग 16 वर्ष बाद भगवान और उनका यह तथाकथित शिष्य एक ही स्थान पर थे। अब गोशालक भगवान महावीर का प्रतिरोधी था और स्वयं को तीर्थंकर कहा करता था। इन्द्रभूति गौतम ने जब नगर में यह चर्चा सुनी कि इस समय श्रावस्ती में दो तीर्थंकर विश्राम कर रहे हैं तो उसने भगवान से प्रश्न किया कि क्या गोशालक भी तीर्थंकर है। प्रभु ने उत्तर में कहा कि नहीं, वह न तो सर्वज्ञ है, न सर्वदर्शी। एक आडम्बर खड़ा करके वह अपनी प्रतिष्ठा बढ़ाने में लगा हुआ है। इस कथन से जब गोशालक अवगत हुआ तो उसे प्रचण्ड क्रोध आया और भगवान के शिष्य आनन्द मुनि से उसने कहा कि मैं अब महावीर का शिष्य नहीं रहा। अपनी स्वतंत्र गरिमा रखता हूँ, महावीर ने मेरे प्रति जन-मानस को विकृत किया है, किन्तु मैं भी इसका प्रतिशोध पूरा करके ही दम लूँगा। क्रोधावेशयुक्त गोशालक भगवान के पास आया और उन्हें बुरा-भला कहने लगा। भगवान के शिष्य सर्वानुभूति और सुनक्षत्र इसे सहन नहीं कर पाये और उन्होंने गोशालक का प्रतिरोध किया। दुष्ट गोशालक ने तेजोलेश्या का प्रहार कर इन दोनों को भस्म कर दिया और तब उसने यही प्रहार भगवान पर भी कर दिया। उसकी तेजोलेश्या भगवान के पास पहुँचने के पूर्व ही लौट गयी और स्वयं गोशालक की ओर बढ़ी। समता के अवतार प्रभु इस समय भी क्षमा की भावना से ओतप्रोत थे। उन्होंने गोशालक को सम्बोधित करते हुए कहा कि मेरा आयुष्य तो निश्चित है-कोई उसे बढ़ा-घटा नहीं सकता किन्तु तेरा जीवन-मात्र 7 दिन का ही शेष रह गया है। अत: सत्य को समझ और उसके अनुकूल व्यवहार कर। आवेश में होने के कारण उस समय उस पर भगवान की वाणी का प्रभाव नहीं हुआ, किन्तु अन्त समय में उसे अपने कुकृत्यों पर धोर दुःख होने लगा। आत्म-ग्लानि की ज्वालाओं में वह दग्ध होने लगा। उसने अपने समस्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003143
Book TitleChobis Tirthankar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendramuni
PublisherUniversity of Delhi
Publication Year2002
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size9 MB
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