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________________ भगवान महावीर स्वामी नहीं हो सकता। आत्मबल ही साधक का एकमात्र आश्रय होता है। भगवान ने इस सिद्धान्त का आजीवन निर्वाह किया। 143 मोराक आश्रम प्रसंग : पाँच प्रतिज्ञाएँ स्वकेन्द्रित भगवान महावीर का बाह्य जगत से समस्त सम्बन्ध टूट चुका था। वे तो आन्तरिक जगत को ही सर्वस्व मानकर, उसी में विहार किया करते थे। उनका भौतिक तन ही इन संसार में था । साधक महावीर विहार करते-करते एक समय मोराकग्राम के समीप पहुँचे, जहाँ तापसों का एक आश्रम था । दुइज्जत इस आश्रम के कुलपति थे और ये भगवान के पिता के मित्र थे। कुलपतिजी ने भगवान से आग्रह किया कि वे इसी आश्रम में चातुर्मास व्यतीत करें। भगवान ने भी इस आग्रह को स्वीकार कर लिया और वे एक पर्ण कुटिया में खड़े होकर ध्यानलीन हो गए। सभी तापसों की पृथक् पृथक् कुटियाएँ इस आश्रम में थीं और इनका निर्माण घास-फूस से ही किया गया था। अभी वर्षा भली-भाँति प्रारम्भ नही हुई थी और धरती पर घास नहीं उग पायी थी । अतः समीप की गायें आश्रम में घुस कर इन कुटियों की घास चर लिया करती थीं। अन्य तापस तो इन गायों को ताड़ कर अपनी कुटियाओं को बचा लेते थे, किन्तु ध्यानमग्न रहने वाले भगवान को इतना अवकाश कहाँ ? वे तो वैसे भी मोह से परे बहुत दूर हो गए थे। ये अन्य तापस ही अपनी कुटिया के साथ- साथ भगवान की कुटिया की रक्षा भी कर लिया करते थे। एक अवसर पर जब सभी तापस आश्रम से बाहर कहीं गए हुए थे, तो गायों ने पीछे से सब कुछ चौपट कर दिया। वे जब लौटे तो आश्रम की दुर्दशा देखकर बड़े दुखी हुए। वे भगवान पर भी क्रोधित हुए कि पीछे से इतनी भी चिन्ता वे नहीं रख सके। तापस जन रोष में भरकर भगवान की कुटिया की ओर चले। वहाँ जो उन्होंने देखा, तो सन्न रह गए। उनकी कुटिया की सारी घास भी चर ली गई थी और वे अब भी ध्यानलीन ज्यों के त्यों ही खड़े थे। उन्हें जगत की कोई सुधि ही नहीं थी । इस घोर और अटल तपस्या के कारण तापसों के मन में ईर्ष्या की अग्नि प्रज्वलित हो गई। उन्होंने कुलपति की सेवा में उपस्थित होकर भगवान के विरुद्ध प्रवाद किया कि वे अपनी कुटिया तक की रक्षा नहीं कर पाए । कुलपति दुइज्जंत ने यह सुनकर आश्चर्य व्यक्त किया और भगवान से कहा कि तुम कैसे राजकुमार हो ? राजपुत्र तो समग्र मातृभूमि की रक्षा के लिए भी सदा सन्नद्ध रहते हैं और प्राणों की बाजी भी लगा देते हैं ओर तुम हो कि अपनी कुटिया की भी रक्षा नहीं कर पाए। पक्षी भी तो अपने घौंसलों की रक्षा का दायित्व सावधानी के साथ पूरा करते हैं। भगवान ने आक्षेप का कोई प्रतिकार नहीं किया, सर्वथा मौन रहे । किन्तु उनका मन अवश्य सक्रिय हो गया। वे सोचने लगे ये लोग मेरी अवस्था और मनोवृत्तियों से अपरिचित है। मेरे लिए क्या कुटिया और क्या राजभवन यदि मुझे कुटिया के लिए ही मोह रखना होता तो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003143
Book TitleChobis Tirthankar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendramuni
PublisherUniversity of Delhi
Publication Year2002
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size9 MB
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