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________________ चौबीस तीर्थंकर : एक मूल्यांकन “तीर्थंकर" जैन परम्परा का एक प्रचुर प्राचीन पारिभाषिक शब्द है यह वह शब्द-बिन्द है, जिसमें अर्थ-सिन्धु समग्रतः समाहित है। अभिधार्थ से भिन्न ग्राह्य अर्थ वाले इस शब्द की संरचना "तीर्थ” एवं "कर" इन दो पदों के योग से हुई है। यहाँ 'तीर्थ' शब्द का लोक प्रचलित अर्थ “पावन स्थल” नहीं है, अपितु विशिष्ट अर्थ ही ग्राह्य है। वस्तुतः “तीर्थ" का प्रयोजन "धर्म-संघ से है इस धर्म-संघ में श्रमण, श्रमणी, श्रावक और श्राविका ये चार विभाग हैं। तीर्थंकर वह है, जो इन चतुर्विध तीर्थ की संस्थापना करता है, तीर्थंकर का गौरव वस्तुतः विराट् है, उसके नव-नवीन परिपार्श्व हैं, आयाम हैं। उसकी महिमा वर्णातीत है, और वर्णनातीत भी है। आत्मप्रिय लघु भ्राता डॉ. श्री राजेन्द्र मुनि जी वाग्मिता और विद्वत्ता में माता शारदा के दत्तक सुपुत्र नहीं है, अपितु अंगजात आज्ञानिष्ठ आदर्शतनय है। आप श्री जी ने प्रस्तुत ग्रन्थराज में चतुर्विंशति तीर्थंकर के सन्दर्भ में जो साधार और साधिकार आलेखन किया है, वह वस्तुवृत्या अद्वितीय है। विशिष्ट लेखक और वरिष्ठ चिन्तक मुनि श्री जी जैन शासन की प्रभावना में मूल्यवान् योगदान प्रदान करते रहे और वे साहित्य- आदित्य के रूप में स्वरूपतः रूपायित बनें, यही मेरी मंगल प्रभात की मंगल वेला में मंगल कामना है। -रमेश मुनि शास्त्री
SR No.003143
Book TitleChobis Tirthankar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendramuni
PublisherUniversity of Delhi
Publication Year2002
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size9 MB
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