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________________ 134 चौबीस तीर्थंकर देवाधिप शक्रेन्द्र ने अपने अवधिज्ञान से यह ज्ञात कर लिया कि श्रमण भगवान महावीर ब्राह्मणी देवानन्दा के गर्भ में अवस्थित हो चुके हैं तो उन्होंने आसन से उठकर भगवान की वन्दना की। इन्द्र के मन में यह विचार आया कि परम्परानुसार तीर्थंकरों का जन्म पराक्रमी और उच्चवंशों में ही होता रहा है, कभी भी क्षत्रियेतर कुल में उन्होंने जन्म नहीं लिया। भगवान महावीर ने ब्राह्मणी देवानन्दा की कुक्षि में कैसे जन्म लिया। यह आश्चर्यजनक ही नहीं एक अनहोनी बात है। इन्द्र ने निर्णय किया कि मुझे चाहिए कि ब्राह्मण कुल से निकालकर मैं उनका साहरण उच्च और प्रतापी वंश में कराऊँ। यह सोचकर इन्द्र ने हरिणैगमेषी को आदेश दिया कि भगवान को देवानन्दा के गर्भ से निकालकर राजा सिद्धार्थ की रानी त्रिशलादेवी के गर्भ में साहरण किया जाय। उस समय रानी त्रिशला भी गर्भवती थी। हरिणैगमेषी ने अत्यन्त कौशल के साथ दोनों के गर्भो में पारस्परिक परिवर्तन कर दिया। उस समय तक भगवान ने देवानंदा के गर्भ में 82 रात्रियों का समय व्यतीत कर लिया था और उन्हें 3 ज्ञान भी प्राप्त हो चुके थे। वह आश्विन कृष्णा त्रयोदशी की रात्रि थी। उस रात्रि में ब्राह्मणी देवानंदा ने स्वप्न देखा कि पूर्व में जो 14 महान मंगलकारी शुभ स्वप्न वह देख चुकी थी, वे सभी उसके मुख के मार्ग से बाहर निकल गए हैं। उसे अनुभव होने लगा कि जैसे उसके शुभगर्भ का हरण हो गया है और वह अतिशय दुखी हुई महावीर स्वामी का रानी त्रिशला के गर्भ में साहरण होते ही उसने 14 मंगलदायी दिव्य स्वप्नों का दर्शन किया। स्वप्न-दर्शन के प्रसंग से अवगत होकर जिज्ञासावश महाराजा सिद्धार्थ ने विद्वान स्वप्न फलदर्शकों को सादर आमंखित किया। इन विद्वज्जनों ने स्वप्नों पर गहन चिन्तन कर निर्णय दिया कि इन दिव्य स्वप्नों का दर्शन करने वाली माता तीर्थंकर अथवा चक्रवर्ती जैसे भाग्यशाली पुत्र को जन्म देती है। पंडितों की घोषणा से समग्र राज-परिवार में प्रसन्नता की लहर दौड़ गयी। गर्भगत अभिग्रह एवं संकल्प _गर्भ में शिशु की स्वाभाविक गतिविधियाँ रहती हैं। वह यथोचित रूप से संक्रमणशील रहता है। यह गर्भस्थ भगवान महावीर के लिए भी स्वाभाकि ही था। किन्तु एक दिन उन्हें इस बात का विचार हुआ कि मेरे गतिशील होने से माता को पीड़ा होती है। अत: उन्होंने अपनी गति को स्थगित कर दिया। शुभेच्छा से प्रारम्भ किए गए इस कार्य की विपरीत प्रतिक्रिया हुई। अपने गर्भ की स्थिरता और अचंचलता देखकर माता त्रिशला रानी को चिंता होने लगी कि या तो मेरे गर्भ का ह्रास हो गया है, या फिर उसका हरण कर लिया गया है। इस कल्पना मात्र से माता धोर-कष्टिता हो गयी। इस अप्रत्याशित नवीन स्थिति से राजपरिवार में विषाद व्याप्त हो गया। अवधिज्ञान से भगवान इस सारी परिस्थिति से अवगत हो गए और उन्होंने पुन: अपनी गति प्रारम्भ कर समस्त आशंकाओं को निर्मूल कर दिया। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003143
Book TitleChobis Tirthankar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendramuni
PublisherUniversity of Delhi
Publication Year2002
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size9 MB
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