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________________ 10 'वैदिक संस्कृति का विकास' पुस्तक में श्री लक्ष्मण शास्त्री जोशी ने लिखा है-“जैन तथा बौद्ध धर्म भी वैदिक संस्कृति की ही शाखाएँ है। यद्यपि सामान्य मनुष्य इन्हें वैदिक नहीं मानता। सामान्य मनुष्य की इस भ्रान्त धारणा का कारण है मूलत: इन शाखाओं के वेदविरोध की कल्पना। सच तो यह है कि जैनों और बौद्धों की तीन अन्तिम कल्पनाएँ-कर्मविपाक, संसार का बंधन और मोक्ष या मुक्ति, अन्ततोगत्वा वैदिक ही है।"2 शास्त्री महोदय ने जिन अन्तिम कल्पनाओं-कर्मविपाक, संसार का बंधन और मोक्ष या मुक्ति को अन्ततोगत्वा वैदिक कहा है, वास्तव में वे मूलत: अवैदिक हैं। वैदिक साहित्य में आत्मा और मोक्ष की कल्पना ही नहीं है। और इनको बिना माने कर्मविपाक और बंधन की कल्पना का मूल्य ही क्या है? ए० ए० मैकडोनेल का मन्तव्य है-“पुनर्जन्म के सिद्धान्त का वेदों में कोई संकेत नहीं मिलता है किन्तु एक ब्राह्मण में यह उक्ति मिलती है कि जो लोग विधिवत् संस्कारादि नहीं करते वह मृत्यु के बाद पुन: जन्म लेते हैं और बार-बार मृत्यु का ग्रास बनते रहते हैं।" वैदिकसंस्कृति के मूल तत्त्व हैं—'यज्ञ, ऋण और वर्ण-व्यवस्था।' इन तीनों का विरोध श्रमणसंस्कृति की जैन और बौद्ध दोनों धाराओं ने किया है। अत: शास्त्री जी का मन्तव्य आधाररहित है। यह स्पष्ट है कि जैनधर्म वैदिकधर्म की शाखा नहीं है। यद्यपि अनेक विद्वान इस भ्रान्ति के शिकार हुए हैं। जैसे कि प्रो० लासेन ने लिखा है- "बुद्ध और महावीर एक ही व्यक्ति है, क्योंकि जैन और बौद्ध परम्परा की मान्यताओं में अनेकविध समानता है।" प्रो० वेबर ने लिखा है-“जैनधर्म, बोद्धधर्म की एक शाखा है, वह उससे स्वतंत्र नहीं है। किन्तु उन विद्वानों की भ्रान्ति का निरसन प्रो० याकोबी ने अनेक अकाट्य तर्कों के आधार से किया और अन्त में यह स्पष्ट बताया कि जैन और बौद्ध दोनों सम्प्रदाय स्वतंत्र हैं, इतना ही नहीं बल्कि जैन सम्प्रदाय बौद्ध सम्प्रदाय से पुराना भी है और ज्ञातपुत्र महावीर तो उस सम्प्रदाय के अन्तिम पुरस्कर्ता मात्र हैं।" जब हम ऐतिहासिक दृष्टि से जैनधर्म का अध्ययन करते हैं तब सूर्य के प्रकाश की तरह स्पष्ट ज्ञात होता है कि जैनधर्म विभिन्न युगों में विभिन्न नामों द्वारा अभिहित होता रहा है। वैदिक काल से आरण्यक काल तक वह वातरशन मुनि या वातरशन श्रमणों के नाम 2 वैदिक संस्कृति का विकास, पृ० 15-16 3 वैदिक माइथोलॉजी, पृ० 316 4 S. B. E. Vol. 22, Introduction, p. 19. 5 वही, पृ० 18 6 वही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003143
Book TitleChobis Tirthankar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendramuni
PublisherUniversity of Delhi
Publication Year2002
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size9 MB
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