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बात-बात में बोष
१४. पैशुन्य, १५. परपरिवाद, १६. रति अरति, १७. मायामृषा, १८. मिथ्या दर्शन शल्य पाप ।
ये १८ भेद पाप बन्धन के कारणों के आधार पर बताए गये हैं । जैसे-झूठ बोलना आत्मा की असत्प्रवृत्ति है, अधर्म है। इसके साथ बन्धने वाला कम जब उदय में आता है तब मृषावाद पाप कहलाता है। उदय में जबतक न आये तबतक वह द्रव्य पाप है। इसी तरह
अन्य पाप के भेदों को समझ लेना चाहिए। कमल --महामुने ! कलह पाप तक का अर्थ सहज गम्य है, उसके आगे आए
हुए शब्दों का अर्थ कठिन है, स्पष्ट करने की कृपा करें। मुनिराज- अभ्याख्यान पापका अर्थ है-किसी पर मिथ्या आरोप लगाने से
आत्मा के साथ चिपकने वाला पुद्गल समूह । इसीतरह पेशुन्य अर्थात चुगली करने से, पर परिवाद अर्थात निंदा करने से, रति-अरति यानि असंयम में रुचि और संयम में अरुचि से, मायामृषा अर्थात् माया सहित झठ बोलने से, मिथ्या दर्शन शल्य अर्थात विपरीत श्रद्धा रूप
आत्मा के साथ चिपकने वाला पुद्गल समूह । कमल-पुण्य की तरह क्या पाप की उत्पत्ति भी स्वतंत्र नहीं होती है ? मनिराज-अधर्म के साथ ही पाप की उत्पत्ति संभव है, स्वतन्त्र नहीं ।
पहले असत्प्रवृत्ति होती है तदनन्तर उसका अशुभ बन्धन पाप के रूप में होता है। पांचवां तत्त्व है-आस्रव । कर्म ग्रहण करने वाली आत्मा की अवस्था को आस्रव कहते हैं, उसके पाँच भेद है१. मिथ्यात्व आस्रव-विपरीत श्रद्धा रूप २. अंवत आस्रव-अत्याग भावरूप ३. प्रमाद आस्रव-धर्म के प्रति अनुत्साह रूप ४. कषाय आस्रव-क्रोधादि विकार रूप, किन्तु याद रखना गुस्से में चेहरेपर तनाव व आँखो में लाली आती है वह सारा योग आस्रव है। कषाय आस्रव में केवल आत्मिक उत्तप्ति को लिया गया है ५. योग यात्रवइसके दो भेद है (१) शुभ योग (२) अशुभ योग। मन, वचन
काया की सत्प्रवृत्ति शुभयोग और असत्प्रवृत्ति अशुभ योग आस्रव है। कमल-पुण्य की चर्चा में आपने कहा था-शुभ प्रवृत्ति से आत्मा की विशुद्धि
व कर्मों की निर्जरा होती है, यहाँ आप प्रवृत्ति को आस्रव के भेद में बता रहे हैं। इसका अर्थ हुआ प्रवृत्ति बन्धन की भी हेतु है । एक ही
योग से कम का बंधन और कर्म का टूटना दोनों कैसे होंगे ? मनिराज-इसमें कहीं विरोध नहीं है। हम देखते हैं जिस तरह एक दीप जलता है तो प्रकाश होता है साथ में काजल भी उत्पन्न होता है उसी तरह For Private & Personal Use Only
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