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________________ देव, गुरु और धर्म પહ, क्योंकि उसके ऐश अराम और वैभव की कोई कमी नहीं । त्याग और संयम की बात तो अभाव ग्रस्त व्यक्तियों को रुचती है। मुनिवर-त्याग और संयम की बात अभाव और भाव से नहीं,व्यक्ति के विवेक से जुड़ी हुई है । आज तक अनेक राजा महाराजाओं व ऐशवर्य सम्पन्न व्यक्तियों ने धर्म को अपनाया है । भगवान् महावीर ने भी राजघराने में जन्म लिया था। राजकीय सुखों को छोड़कर ही उन्होंने साधना का पथ स्वीकार किया था । एक बात यहां और समझने की है, वह है धर्म भौतिक सुख सुविधा या स्वर्ग पाने की दृष्टि से नहीं किया जाता है। धर्म का उद्देश्य है आत्मशोधन, स्वरूप का बोध व अनन्त शक्तियों का जागरण आदि । भौतिक सुख या स्वर्ग तो पुण्य के फल हैं, जो गौण रूप से स्वतः प्राप्त हो जाते हैं। कमल-धर्म और पुण्य को सामान्य आदमी एक ही अर्थ में लेता है। क्या इनमें भी अन्तर है ? मुनिबर–सामान्य जन ही नहीं कोशकारों ने भी इनको पर्यायवाची शब्द बताया है। किन्तु अध्यात्म शास्त्र इनको भिन्न-भिन्न मानता है । धर्म है-व्यक्ति की सत्प्रवृत्ति, आत्म स्वभाव, कम निजरा व आत्म उज्ज्वलता का हेतु, जबकि पुण्य है आत्मा की वैभाविक दशा, भव भ्रमण का हेतु व धर्म का गौणफल । जैसे-खेती अनाज के लिये की जाती है पर तुड़ी उसके साथ स्वतः निष्पन्न हो जाती है । हां, लोक व्यवहार में धर्म और पुण्य को एक भी कह दिया जाता है । जनता की भलाई के लिये किये जाने वाले कार्यों को धर्म और पुण्य की संज्ञा दे दी जाती है किन्तु शुद्ध धर्म का सम्बन्ध नितान्त आत्मा से जुड़ा है। उसमें लोकेषणा के लिये तनिक भी अवकाश नहीं । विमल मुनिवर धर्म का आचरण व्यक्ति को किस समय करना चाहिये ? मुनिवर-भगवान महावीर ने कहा-धर्म का आचरण व्यक्ति को हर क्षण करना चाहिये । “समयं गोयम मा पमायए" सूक्त के द्वारा वे हर क्षण जागरुक रहने का संदेश देते हैं । तीन तरह के व्यक्ति ही कल के लिये धर्म की बात सोच सकते हैं-(१) जिसकी मृत्यु के साथ मैत्री हो, (२) जो मृत्यु आने पर इधर इधर पलायन कर सकता हो (३) जो अमर बनकर इस धरती पर आया हो। तीनों प्रकारों में किसी एक प्रकार का भी व्यक्ति हमको दृष्टिगत नहीं होता। ऐसे में धर्म को बढ़ापे के लिये नहीं छोड़ना चाहिये। एक पण का भी भरोसा नहीं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003142
Book TitleBat Bat me Bodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1995
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Education
File Size8 MB
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