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________________ बात-बात में बोध मानव मात्र में यह विश्वास जगा है कि हिंसा के द्वारा युद्ध की लपटें कभी शान्त नहीं हो सकती। हिंसा प्रतिहिंसा को जन्म देती है। शान्ति का स्थायी समाधान कोई है तो अहिंसा ही है। हर संघर्ष के प्रतिकार का सर्वोत्तम साधन भी यही है। जरूरत है अहिंसात्मक नीति पर विश्वास पैदा करने की और जीवन व्यवहार में उसे उतारने की । ओमप्रकाश-मुनिवर ! कई बार ऐसी भी परिस्थितियां आती है कि समाज, जाति व देश के लिए व्यक्ति को युद्ध भी करना पड़ता है। क्या एक अहिंसक उस समय भी प्रेम व समता की ही रटन लगाता रहेगा ? क्या इससे अहिंसा बदनाम नहीं होगी? मुनिवर--अहिंसक व्यक्ति पर जे से अपने परिवार का दायित्व है वैसे ही देश व जाति का भी दायित्व उसके कन्धों पर है। जैसे परिवार की सुरक्षा वैसे ही देश की सुरक्षा करना उसका कर्त्तव्य होता है। अतः वह सर्वथा हिंसा से मुक्त नहीं हो सकता। युद्ध भी एक अनिवार्य हिंसा है। अहिंसा में विश्वास रखते दुए भी देश की रक्षा के लिए उसे हिंसा को स्वीकार करना पड़ता है। जैन धर्म के अनुयायी अहिंसानिष्ठ अनेक व्यक्ति ऐसे हुये हैं जिन्होंने सेनापति पद पर काम किया और युद्ध में अपना कौशल दिखाया, विजयश्री का भी वरण किया। अहिंना व्यक्ति को कभी कर्त्तव्य से विमुख नहीं बनाती। ओमप्रकाश-मेरे मित्र गण कहते हैं- इस अहिंसा के कारण ही तो भारत __ सदियों तक गुलाम रहा। यह कहां तक ठीक है ? मुनिराज ---यह तो इतिहास की अनभिज्ञता और दृष्टि का भ्रम ही हैं। ऐसा कोई युग नहीं रहा जब पूरी तरह अहिंसा का साम्राज्य रहा हो, हिंसा का अस्तित्व समाप्त हो गया हो। आजादी से पहले भी सैकड़ों, हजारों छोटे-बड़े युद्ध भारत की धरती पर होते रहे हैं। देश की मुक्त करने के लिये हिंसात्मक प्रयत्न हुए पर सफलता प्राप्त नहीं हुई। अन्ततोगत्वा देश की आजादी का श्रेय महात्मा गांधी को मिला। उनकी अहिंसात्मक नीति सफल हुई। इस दृष्टि से देशवासियों को अहिंसा के प्रति चिरकृतज्ञ रहना चाहिए । अहिंसा पर आरोप लगाने वालों को पता होना चाहिये कि भारत की गुलामी के पीछे छोटी-छोटी रियासतों में आपसी फूट, जातिगत विरोध, युद्ध नीति के ज्ञान का अभाव आदि कारण प्रमुख रूप से रहे हैं। हिंसा के ये विष बीज भारत में सदा पनपते रहे हैं। इसी के चलते देश को सदियों तक बन्धनों में जकड़े रहना पड़ा। अतः मिथ्या For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.003142
Book TitleBat Bat me Bodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1995
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Education
File Size8 MB
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