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________________ जैन धर्म में विज्ञान १७ अभाव में निष्क्रिय बन जाता है, फलस्वरूप रात में किया हुआ भोजन शीघ्र हजम नहीं होता व कई प्रकार की बीमारियों का कारण भी बनता है। शहरी लोगों की आम बीमारी पेट की गैस का कारण यह रात्रि भोजन ही है। विज्ञान यह भी मानता है कि सूर्य के आतप में बहुत सारे शूद्र कीटाणु निष्क्रिय हो जाते हैं जो कि अन्धकार में सक्रिय रहते हैं। वे रात में भोजन करते समय हमारे पेट में घुस जाते है और शरीर में उत्पात मचाते हैं। देखा गया है कि वायु का या अन्य किसी प्रकार का दर्द रात के समय ही ज्यादा सताता है, दिन में उतना नहीं। ओमप्रकाश-बहुत अच्छा समझाया मुनिवर ! एक आरोप जो मेरे मित्रों द्वारा जैन धर्म पर लगाया जाता है वह है अहिंसा के सिद्धांत को लेकर । वे अक्सर अहिंसा की मखौल उड़ाते रहते है और कहते हैं अहिंसा व्यक्ति को कायर और दब्बू बनाती है । मुनिवर-अहिंसा का पथ वीरों का पथ है। कमजोर और कायर व्यक्ति हिंसा का सहारा लिया करते हैं। एक व्यक्ति गाली निकालता है तो सामान्य व्यक्ति गाली का उत्तर गाली से देता है किन्तु अहिंसक व्यक्ति उसके बराबर गाली नहीं देता, मौन रखता है या अपने प्रेमपूर्ण व्यवहार से उसे परास्त कर देता है। आपही निर्णय करें प्रतिकूल परिस्थिति में गाली देना सरल है या क्षमा करना। ओमप्रकाश-यो तो गाली देना ही सरल है, क्षमा रखना बड़ा कठिन होता है । पर दुनिया तो मौन रखने वाले को कमजोर मानती है। मुनिवर- दुनिया तो ऊपरी व्यवहार को देखती है किन्तु हकीकत को झुठलाया नहीं जा सकता। "मार सके मारे नहीं तांको नाम मरद ।” एक अहिंसक क्षमा करता है, इसका अर्थ यह नहीं कि वह बोलना नहीं जानता या उसमें ईट का जबाब पत्थर से देने की ताकत नहीं है। वास्तव में वह गाली देने या पत्थर उठाने को गलत मानता है। वह जानता है कि खून के दाग को खून से साफ नहीं किया जा सकता। हिंसा तो आग लगाना जानती है, उसे बुझाने का काम अहिंसा के द्वारा ही सम्भव है। इसी आस्था के कारण अहिंसक व्यक्ति समर्थ होते हुए भी हिंसात्मक गतिविधियों में अहिंसा का पथ नहीं छोड़ता। महावीर, गौतम, ईसा आदि महापुरुषों ने अहिंसात्मक तरीके से ही अनेक विरोधी व्यक्तियों को परास्त किया था। मानव ही नहीं देत्य व पिशाच भी उनकी वीर्यवती अहिंसा के आगे झुक जाते थे। इस Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003142
Book TitleBat Bat me Bodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1995
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Education
File Size8 MB
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