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जाए ? बहुत सारे लोग यह समस्या प्रस्तुत करते हैं-ध्यान करते हैं, किन्तु मन में विचार बहुत उठते हैं, विचार का स्रोत-सा खुल जाता है। क्या निर्विचार या विचारशून्य होना चाहते हैं ? विचारशून्य व्यक्ति तो पत्थर है। क्या आप भी पत्थर बन जाना चाहते हैं ? ध्यान का काम यदि पत्थर बनाना है तो फिर ध्यान न करना ही अच्छा है।
हमें बहुत स्पष्ट रूप से समझना है कि विचार मनस्वी व्यक्ति की स्वाभाविक प्रक्रिया है। विचार निरंतर आते रहते हैं। ध्यान में यह समस्या इसलिए आती है क्योंकि हमने मान लिया है कि ध्यान का मतलब विचार का न होना है। ध्यान का प्राथमिक अर्थ विचार का न होना नहीं है। हमारी कोशिश यह होनी चाहिए कि विचार अनावश्यक न आएं। विकार पैदा करने वाले विचार न आएं। भटकाने वाले विचार न आएं। सबसे पहले इस पर नियंत्रण होना चाहिए।
विचारों की भूलभुलैया विचारों का बहुत बड़ा भटकाव है, भूलभुलैया है। आदमी भूलभुलैया के भीतर प्रवेश करता है तो उसमें फंसता ही जाता है। बाहर निकलने का रास्ता खोज नहीं पाता। कानन की भूलभुलैया तो बहुत छोटी होती है। लखनऊ का इमामबाड़ा तो इस दृष्टि से कुछ भी नहीं है। यह विचारों की भूलभुलैया इतनी बड़ी है कि जो उलझ गया, वह उलझ गया। उसके लिए निकल पाना सहज नहीं होता। उसे निकलने का कोई दरवाजा आसानी से नहीं मिल पाता।
एक अन्धा आदमी मीलों तक फैली एक चहारदीवारी में प्रवेश कर गया। निकलने और प्रवेश करने के लिए उसमें मात्र एक ही दरवाजा था। भीत के सहारे चलते-चलते अंधे आदमी ने दरवाजा ढूंढ़ने की कोशिश की। जब दरवाजा निकट आया तो उसके सिर में खुजली आ गयी। सिर खुजलाने के उस एक क्षण में ही वह चूक गया और दरवाजे से आगे बढ़ गया। अब पुनः दरवाजा कब आएगा ?
ध्यान का अर्थ ऐसी ही स्थिति आज मनुष्य की है। विचारों का इतना भटकाव है कि जहां
विचार को देखना सीखें । १३
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