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सुविधिनाथ नामक नवम तीर्थङ्कर के धर्मशासन के अन्त समय में जैन श्रमणों का अस्तित्व लुप्त हो गया था, और धर्म सम्बन्धी कोई भी निर्णय जैन माहनों के विचारों पर निर्भर रहता था। माहनों ने इस स्वातंत्र्य लाभ का दुरुपयोग किया। मूलनिगम जो कंबल अहिंसा धर्म का प्रतिपादन करने वाले थे, उनको वस्त्रों में बांध कर उनके स्थान नये निगमों का निर्माण किया, जिनमें यज्ञों में सुवर्ण-दान, भूमि दान, आदि दानों का प्रतिपादन किया गया। जैनाचार्यों ने इन नये वेदों के निर्माताओं के रूप में याज्ञवल्क्य सुलसादि का नाम-निर्देश किया है ।
२ - वेदों तथा ब्राह्मण ग्रन्थों मे मनुष्य का आहार
वेदों का अनुशीलन करने वाले आधुनिक विदेशी विद्वानों तथा उनके अनुयायी भारतीय विद्वानों की ऐसी मान्यता हो गयी है कि ऋग्वेद संहिता जो सब से प्राचीन ग्रन्थ है, उसमें यत्र के अतिरिक्त त्रीहि आदि धान्यों का नाम-निर्देश नहीं मिलता, अतः उस समय के आर्यों में धान्य का आहार के रूप में व्यवहार अत्यल्प होता होगा । विद्वानों की इस मान्यता को हम प्रामाणिक नहीं कह सकते, प्राचीन संस्कृत शब्दों खास कर वैदिक शब्दों का प्रयोग रहस्य - पूर्ण होता था । वह रहस्य उनका प्रयोग करने बाले अथवा उनके शिष्य हो यथार्थ रूप में जान सकते थे, अथवा तत्कालीन निघण्टुकार उन शब्दों का रहस्य खोल सकते थे ।
ऋग्वेद में आने वाला "यवास" शब्द केवल यव धान्य को ही सूचित नहीं करता, किन्तु उसकी जाति के गोधूमादि सर्वधान्यों
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