________________
( ५०६ ) सामजं ददुप्पराम, निरयायुपकड्ढति ॥१२॥
“धम्मपद' पृ० ४६ अर्थः-जो कषाय से मुक्त नहीं है और काषाय वस्त्र धारण करने की इच्छा करता है, पर इन्द्रियदमन और सत्यता से विमुक्त वह काषाय वस्त्र धारण के योग्य नहीं है।
काषाय वस्त्र को गले में लगाने वाले बहुतेरे पाप धर्म रत तथा असंयत पापी अपने पाप धर्मों से नरक गतियों में उत्पन्न हुये ।
दुश्शील असंयत जो राष्ट्रपिण्ड खाता है, उससे तो अग्नि ज्वालोपम तपा हुआ लोह का गोला खाना श्रेष्ठ है। ___ जैसे ठीक न पकड़ा हुआ दर्भ पकड़ने वाले के हाथ को चीर देता है, वैसे ही यथार्थ न पाला जाता हुआ श्रमण धर्म श्रमण को नरक के समीप ले जाता है।
इति षष्ठोऽध्यायः
समाप्ति मंगल जैनागम-वेदागम-बौद्धागम कृतितति समवलोक्य । गुणिजनबोधनिमित्तं, मीमांसा निर्मिता भोज्ये ॥१॥ मनुगगनयुग्म वर्षे, फाल्गुणमासे सिताष्टमी दिवसे । जावालिपुरे रम्ये, मीमांसा पूर्णवामगमत् ॥२॥ मङ्गलं श्री महावीरो मङ्गलं गौतमो गणी । मङ्गलं त्रिपदी वाणी मङ्गलं धर्म आहेतः ॥३॥
॥ इति मानव भोज्य मीमांसा समाप्ता ।।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org