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शरीर निर्वाह के लिये आसक्ति तथा मोह रहित होकर भोजन करते थे ।
सव्वास परिक्खीणा, महाभायी महाहिता । निव्वुता हानि ते थेरा, परिता दानि तादिसा ||२८|| कुसलानं च धम्मानं, पञ्ञाय च परिखया । सव्वाकार वरूपेतं, लुज्जते जिन सासनं ॥२६॥ पापकानं च धम्मानं, किलेसाञ्चयो उतु । उपट्टिता विषेकाय, ये च सद्धम्म सेसकाः ||६३० ॥
अर्थः-- सर्वाश्रवमुक्त, महाध्यायी, महाहित कारक, परिमित पदार्थग्राही ऐसे स्थविर आज कल निवृत्ति प्राप्त कर गये, उक्त प्रकार के आज नहीं रहे । कुशल धर्मों के तथा प्रजा के नाश होने से आज तथागत का शासन सर्व प्रकार से विरूपता को प्राप्त होकर लज्जित हो रहा है । पापक धर्म तथा क्ल ेशों का समूह जो सद्धर्म के उपासक शेष रहे हैं, उनके अविवेक का कारण बन रहा है ।
मत्तिकं तेलं चुरणं च, उदकासन भोजनं । गिहीनं उपनामेंति, आकखंता बहुत्तरं ॥ ३७॥ दंत पोणं कपिट्ठ च, पुप्फ खादनीयानि च । पिण्डपाते च संपन्न, अंबे आमलकानि च ॥ ६३८ ॥ अर्थः- मृत्तिका, तैल, चूर्ण, पानी, आसन, खाद्यवस्तु, अधिक प्राप्ति की इच्छा करते हुए गृहस्थों को देते हैं ।
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