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( ४८१ ) एतादिसं पुञ्जमनुस्सरंता, ये वेदयता विचरंति लोके ।। विनेय्य मच्छेर मलं समूलं, अनिन्दिता सग्गमुपैति ठानंति॥२४
(विमान वत्थु पृ. ३३) अर्थ-जो पुण्य की अपेक्षा रखने वाले यजमान मनुष्य हैं, वे यदि संघ को दान करे तो वह दान महाफल देने वाले औषधिक पुण्य को उत्पन्न करता है।
यह संघ बड़ा विशाल और महार्य है, यह समुद्र की तरह अप्रमेय है इस संघ के अंगभूत ये श्रेष्ठ पुरुषार्थी और तेजस्वी श्रावक धर्मकथा करते हैं। __ जो संघ को लक्ष्य करके दान देते हैं, उनका दान ही सुदान है, उनका हवन ही सुहुत है, उनकी इष्टि ही यज्ञ है और संघ को दी हुई वह दक्षिणा ही विद्वानों द्वारा महाफलवती कही गई है। ___ इस प्रकार का पुण्य करते हुए जो विद्वान् लोक में विचरते हैं, वे समूल मात्सर्यरूप मल को दूर करके अनिन्दनीय बन कर स्वर्ग स्थान को प्राप्त करते हैं। ___उक्त विमान वत्थु के कतिपय पद्यों से यह निश्चित हो जाता है कि गौतम बुद्ध और इनके शिष्य बौद्ध भिक्षु दान का खूब उपदेश देते रहते थे । पूरण कश्यप आदि अन्य सम्प्रदाय प्रवर्तक इस प्रवृति का खुल्लम खुल्ला विरोध करते थे कि मांस भक्षक संन्यासियों को दान देने में कोई लाभ नहीं है । इस विषय में महावीर और इनके अनुयायी श्रमणों का अभिप्राय सब से निराला था। कई
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