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{ ४७ ) एवं तु समणा एगे, मिच्छदिट्ठी अणारिया । विस एसणं झिझायंति, कंका वा कलुसाहमा ॥१८॥
(सूत्रकृताङ्ग एकादश अ०) अर्थ-आग, सजीवधान्य, कच्चा पानी का उपयोग कर अपने लिये बनाया हुआ अन्न खाकर जो ध्यान करते हैं उन्हें पर पीडा के अनभिज्ञ असमाधि प्राप्तकहना चाहिए ।
जैसे ढंक, केक, कुरर, मद्गु, आदि पक्षी मत्स्य की खोज में स्थिर चित्त होकर ध्यान करते हैं-वह ध्यान मलिन और अधर्म्य हे
इसी प्रकार अमुक श्रमण जो मिथ्यादृष्टि और अनार्य हैं, वे कंक पक्षो से भी अधम इन्द्रियों की विषयैषणा का ध्यान करते हैं।
निर्ग्रन्थ श्रमण उद्दिष्टकृत आहार और प्रामगन्ध दोनों को समान मानते थे । उनका कहना था कि श्रमण के निमित्त अन्य जन्तुओं का समारम्भ करके बनाया गया भोजन भी एक प्रकार का मगन्ध ही है। भगवान महावीर ने उन्हें ताकीद दे रक्खी थी कि -
आमगन्धं परिनाय निरामगन्धो परिव्यये । अर्थ-आमगन्ध को समझ कर निग्रन्थ श्रमण निरामगन्ध होकर विचरे ।
सव्वेसि जीवाण दयट्ठयाये सावज्ज दोसं परिवज्जयंता। तस्संकिणो इसिणो नायपुत्ता, उद्दि भ परियज्जयंति ।।
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