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स्थित प्रदेशों में रहा करते थे । सर्व प्रथम उन्होंने आलारकालाम तथा उद्घक रामपुत्त नामक संन्यासियों के पास रहकर उनके सम्प्रदाय की कुछ बातें सीखी बाद में वे राजगृह गये और उरुबेल नदी के प्रदेश में तपस्या शुरू की । प्रथम निर्ग्रन्थ सम्प्रदाय में प्रचलित अनेक तपस्याओं का आराधन किया, फिर संन्यासियों के सम्प्रदाय में प्रचलित तपस्याओं की तरफ झुके और विविध प्रकार के तापस सम्प्रदायों का भी आराधन किया । इन सभी बातों का उन्होंने "मज्झिम निकाय" के " महासींह नाद सुत्त" में वर्णन किया है । जिस का कुछ भाग नीचे दिया जाता है । पाठकगण देखेंगे कि महात्माबुद्ध ने प्रारम्भ में कैसी कष्टकारिणी साधनायें की थीं ।
" तत्रस्तु मे इदं सारिपुत्त तपस्सिताय होती अचेलको होमि मुत्ताचरो हत्थापलेखनो न एहि भदन्तिको न तिठ्ठ भदन्तिको, नाभिहट, न उद्दिस्स कटं न निमन्तणं सादियामि, सो न कुम्भीमुखा, पतिगरहाभिन कलोपिमुखा पति गएहामि, न एलक मन्तरं न मुसलमन्तरं, न द्विन्न भुञ्जमानानं, न गब्भिनिया, न पायमानाय, न पुरिसन्तर गताय, न संकित्ती, नं यत्थ सा उपट्टितो होती, न यत्थ मक्खिका सण्डसण्ड चारिणी, न मच्छं न मंसं न सुरं न मेरयं न सोदकं पिबामि । सो एकागारिको वा होमि एकालोपिको, द्वागरिको वा होमि द्वालोपिको, सत्तागारिको वा होमि सत्तालोपिको। एकिस्सापि दन्तिया यापेमि, द्वीहि पि दत्तीहि यापेमि .......सत्तहि पि दत्तीहि यापैमि । एकाहिकं पि आहार
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