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________________ वैदिक परिव्राजक का मौलिक रूप विशेष त्यागमय और अप्रतिबद्ध है, परन्तु मानव स्वभावानुसार अन्यान्य धार्मिक सम्प्रदायों के श्रमणों की तरह वैदिक श्रमण भी धीरे धीरे निम्न गामी होता गया है, यह बात इस निबन्ध से स्पष्ट प्रतीत हो जायगी। उपनिषत् कालीन परिव्राजकों के जीवन में जो निस्पृहता दृष्टिगत होती है, वह स्मृतिकालीन संन्यासियों अथवा यतियों में नहीं दीखती, फिर भी संन्यासी संस्था त्यागमयी और वैदिक धर्म की परमोकारिणी है इसमें कोई शङ्का नहीं। उपनिषत् काल में परिव्राजक “विवर्ण वासाः' अर्थात वर्ण हीन वस्त्रधारी होता था, परन्तु धर्मशास्त्र तथा स्मृतिशास्त्र कारों ने विवण-वासाः नहीं रहने दिया, इतना ही नहीं बल्कि कई स्मृतिकारों ने तो "श्वेत वस्त्र" को संन्यासी के पतनों में से एक मान लिया। इसका कारण हमारी समझमें वैदिक यति को जैन यति से पृथक दिग्वाना मात्र था। जिस समय दक्षिण भारत में हजारों श्वेत वस्त्रधारी जैन श्रमण विचरते थे, उसी समय उस प्रदेश में विष्णु स्वामी, माध्वाचार्य, रामानुजाचार्य आदि विद्वानों ने भिन्न भिन्न वैष्णव सम्प्रदायों की स्थापना की थी और सम्प्रदाय के मुख्य अङ्गभूत संन्यासियों के नाम भी यति, मुनि आदि दिये जाते थे जो वास्तव में तत्कालीन जैन श्रमणों के नामों का अनुकरण था। परन्तु नाम तथा वेप के सादृश्य से कोई जैन श्रमणों को वैष्णव यति मानने के भ्रम में न पड़े इसलिये उनके वस्त्रों में से श्वेत वस्त्र को दूर कर दिया और सख्त आज्ञा विधान Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003119
Book TitleManav Bhojya Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1961
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Food
File Size19 MB
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