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( ३७६ )
मनः संकल्पर हितान् गृहान्स्त्रीन् पञ्च सप्त वा । मधुवदाहरणं यत्तन्माधुकरमिति स्मृतम् स्मृतम् ॥
अनियत तीन पांच, अथवा सात घरों से भ्रमरवत् घोड़ा थोड़ा अन्न ग्रहण करना उसका नाम माधुकरी वृत्ति है । माधुकरी के विषय में अत्रि कहते हैं :
यथामध्वाददानोऽपि भृङ्गः पुष्पं न बाधते । तद्वन्माधुकरी भिक्षामाददीत गृहाधिपात् ॥
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अर्थः- जैसे मधुको ग्रहण करता हुआ भ्रमर पुष्प को किसी प्रकार की बाधा नहीं पहुँचाता है, उसी प्रकार गृहपति से भिक्षु भिक्षा ग्रहण करे |
गार्गीय स्मृति में चतुर्विध संन्यासियों का वर्णन इस प्रकार दिया है।
त्रिदण्डी सशिखो यस्तु ब्रह्मसूत्री गृहच्युतः । सकृत्पुत्र गृहेऽश्नाति, यो याति स कुटीचरः || कुटीचरस्य रूपेण ब्रह्मभिक्षो जिताssसनः । बहूदको स विज्ञेयो, विष्णुजाप परायणः ॥ ब्रह्मसूत्र - शिखाहीन कषायाम्बर - दण्डभृत् । एक रात्रिं वसेद् ग्रामे, नगरे च त्रिरात्रिकम् ॥ विप्राणामावसथेषु, विधूमेषु ब्रह्म- भिक्षां चरेद्हंसः, कुटिकावासमाचरेत् ॥
गताग्निषु I
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