________________
“अथ पुनवती वाऽवती वा स्नातको वास्नातको वा उत्सन्नानिको या निरनिको वा यदहरेव विरजेत् तदहरेव प्रत्रजेत् ।
___ अर्थ:-यदि वह व्रती हो अथवा अवती, स्नातक हो अश्या अग्नातक, आहिताग्निक हो अथवा अनाहिताग्निक, जिस दिन बैराग्यवान हो उसी दिन प्रनजित हो जावे।
संन्यास ग्रहण के सम्बन्ध में आरण्योपनिषद् में निम्न प्रकार का नियम है।
'वेदार्थ यो विद्वान् सोपानयादूज़ स तानि प्रारवा त्यजेत् पितरं पुत्रमन्युपवीतं कर्म कलत्रं चान्यदपि"
अर्थात् वेद के अर्थ को जो जानता है वह उनको उपनयन के बाद अथवा पहले ही पिता को पुत्र को अग्नि को, उपवीत को कर्म को, स्त्री को, और अन्य भी उससे जो सम्बन्ध हो उन सभी को त्याग दे। संन्यास के विषय में अङ्गरा का प्रतिपादन नीचे अनुसार है। यदा मनसि संजातं, वैतृष्ण्यं सर्ववस्तुषु । तदा संन्यासमिच्छन्ति, पतितः स्यात् विपर्ययात् ॥ अर्थः-जिस समय सर्व वस्तुओं में से मन तृष्णाहीन हो बाय तभी संन्यास लेना चाहिये, ऐसी ज्ञानियों की मान्यता है,
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org