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षट् कर्माणि ब्राह्मणस्याध्यनमध्यापनं यजनं याजनं दानं प्रतिइश्च ।
अर्थ-ब्राह्मण के षट् कर्म ये हैं-अध्ययन, अध्यापन, यजन, राजन, दान और प्रतिग्रह ।
उक्त षट् कर्म करने के योग्य न होने की दशा में ब्राह्मण अनी जीविका क्षत्रिय अथवा वैश्य कर्म से चला सकता है । वैश्य
ओं में से उसके लिये वाणिज्य करना ठीक माना गया है, वाणिज्य में वह किन किन चीजों का वाणिज्य न करे इस सम्बन्ध में गौतम धर्मसूत्रकार लिखते हैं।
तस्यापण्यम् ।।८।। किं तदपण्यमित्यत आह-गन्ध-रस-कृतान्न ल-शाण तौमाजिनानि ॥६॥ रक्त निणित वाससी ॥१०॥ क्षीरं सविकारम् ।।११ मूल फल पुष्पौषध मधु-मांस तृणोदकापथ्यानि ११२।। पशवश्च हिंसा संयोगे ।।१३।।
अर्थ-ब्राह्मण के लिए यह अविकेय है, वह अविक्रय क्या है सो कहते हैं-गन्ध ( सुगन्धि चूर्ण सुगन्धि तेल आदि ) रस-( घृत तेल, मद्य आदि ; कृतान्न ( पकाया हुआ अन्न ) तिल, शण निर्मित वस्त्र, क्षौम-अतशी मय वस्त्र, चर्म, पक्के रक्त रंग से रगे हुये वस्त्र दूध, दुग्ध विकार ( खोवा पायस आदि ) मूल-मूली वटाटा आदि फल, पुष्प, औषधियां, शहद, मांस, घास, जल अपथ्य, पशु (जिसको देने से हिंसा का सम्भव हो) ये सभी पदार्थ वैश्यवृत्ति करने वाले ब्राह्मण के लिये अविक्रेय हैं।
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