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( ३३८ ) आश्रम चार हैं - ब्रह्मचर्याश्रम, गृहस्थाश्रम, वानप्रस्थाश्रम और संन्यासाश्रम ।
१-लगभग आठ वर्ष की उम्र में बालक का उपनयन संस्कार करके उसे विद्या गुरु के स्वाधीन कर दिया जाता था ! वहां रह कर बालक आश्रम की समय-मर्यादा तक बह्मचर्य पालन के साथ आश्रम सम्बन्धी नियम को पालता हुआ शास्त्राध्ययन करता था। वेद वेदाङ्गादि सर्व शास्त्रों का ज्ञाता बन कर वह स्नातक हो गुरु-दक्षिणा प्रदान करके अपने घर जाता। स्नातक होने के बाद जब तक उसका विवाह नहीं होता तब तक वह स्नातक के रूप में रहता और स्नातक के नियमों का पालन करता । __२-विवाह हो जाने के बाद वह गृहस्थाश्रमी कहलाता और गृहस्थोचित धार्मिक तथा व्यावहारिक कार्य करने का अधिकारी बनता।
३---गृहस्थाश्रम को पालन करते हुए उसे विशेष धार्मिक साधना करने की इच्छा होती तब गृहस्थाश्रम के कार्य अपने पुत्रों पर छोड़ कर वह सपत्नीक अथवा अकेला बन में जाकर आश्रम बांध कर वहां रहता और अपने नित्य कर्म करता।
४–वानप्रस्थ स्थिति में रह कर तपस्या देवता पूजन, आदि धार्मिक कार्य करते करते जब उसे विशेष त्याग और वैराग्य भावना उत्पन्न हो जाती तब वह सर्व अनुष्ठानों को छोड़ कर निस्संग और निस्पृह संन्यासी बन कर चला जाता । येही वैदिक
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