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________________ ( २५८ ) अपार्द्ध क्षेत्रीय कहा है। नक्षत्रों के तीन विभाग क्रमशः पैंतालीस, तीस और पन्द्रह मुहूर्त वाले होते हैं । सुत्तत्थ तदुभय विऊ पुरो घेत्त ण पाण य कुसे य । गच्छइ य जउड्डाहो परिट्ठवेऊण आयमणं ।। ४६ ॥ अर्थ-सूत्र ,अर्थ और दोनों का जानने वाला श्रमण शुद्ध प्रासुक जल-पात्र और कुश लेकर मृतक के आगे चलता हुआ पूर्व प्रेक्षित भूमि में जाय और मृतक का व्युत्सर्जन करके जल से हाथ पग धोकर आचमन करे । मृतक को उठाने वाले श्रमण भी उसी प्रकार जल का उपयोग करे जिससे कि लोक-गीं न हो। थंडिल वाधाएणं अहवावि अणिच्छिए अणाभोगा । भमिऊण उवागच्छे ते णेव पहेण न नियत्ते ॥ ४७ ।। अर्थ-मृतक-व्युत्सर्जन के लिये जिस स्थण्डिल भूमि का निरीक्षण किया हो उसमें आकस्मिक बाधा उपस्थित हो जाने पर अथवा प्रथम से ही वह व्युत्सर्जन के योग्य न होने पर भी योग्य मान ली गयी हो, पर गीतार्थ की दृष्टि में वह व्युत्सर्जन करने योग्य न होने से दूसरे स्थण्डिल में जाना पड़े तो घूमकर जाय परन्तु जिस मार्ग से आया है उसी मार्ग से वापस न लौटे। कुस मुट्ठी एगाए अघोच्छिणाइ एत्थ धाराए । संथारं संथरेज्जा सम्बत्थ समो उ कायब्बो ॥४८॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003119
Book TitleManav Bhojya Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1961
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Food
File Size19 MB
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