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________________ ( २७३ ) श्रमणों के गण जैन श्रमणों के पारस्परिक सम्बन्ध और संघटन के लिए भगवान् महावीर के समय से ही सुन्दर व्यवस्था चली आ रही है । महावीर ने अपने हजारों श्रमणों को नव विभागों में बांट दिया था । सात विभागों के उपरि एक-एक और दो विभागों के ऊपर दो दो प्रमुख स्थविर नियत थे, और वे गणधर नाम से पहिचाने जाते थे । महावीर निर्वाण के अनन्तर भी सैकड़ों वर्षों तक यही व्यवस्था चलती रही, मौर्य - राज के समय में जैन श्रमणों की संख्या पर्याप्त रूप से बढ़ी और एक एक स्थविर से उन श्रमणों गणों का नियन्त्रण होना कठिन हो गया, तब तत्कालीन स्थविरों ने व्यवस्था में कुछ परिवर्तन किया और गणों के भी विभाग पाड़ कर उनको कुल नाम से जाहिर किया, प्रत्येक कुल के ऊपर एक एक स्थविर, प्रत्येक गरण के ऊपर एक स्थविर और सवगण समुदायात्मक संघ के ऊपर एक स्थविर नियुक्त करने की पद्धति नियत की। इतना ही नहीं किन्तु प्रत्येक गण की व्यवस्था सुगमता से हो इसलिये गए स्थविरों ने अपने गरण में से योग्य स्थविरों को भिन्न भिन्न कार्याधिकार सौंपा और उनके नियम उपनियम बना कर अधिकारियों का कार्य सुगम बना दिया | हम इस व्यवस्थित कुल गण, और संघ शासन की संक्षिप्त रूप रेखा नीचे बताते हैं । पाठक - गण देखेंगे कि श्रमणों ने अपनी धार्मिक व्यवस्था के लिये कितनी सुन्दर शासन-पद्धति निर्माण की थी । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003119
Book TitleManav Bhojya Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1961
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Food
File Size19 MB
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