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( २६४ ) आपकी आज्ञा प्राप्त करके मैं अमुक प्रकार का विकृति भोजन करना चाहता हूँ इतने प्रमाण में और इतनी बार इस पर यदि उसका नायक आज्ञा दे तो वह विकृति का आहार कर सकता है । इस पर शिष्य पूछता है। भगवन् ! इसका क्या कारण है कि प्राचार्य की आज्ञा से ही विकृति ली जाय । गुरु कहते हैं, आचार्य हानि जानने वाले होते हैं ।
जैन श्रमणों का भोजन प्रकार जैन श्रमण यथालब्ध शुद्ध आहार को लेकर एकान्त में बैठ कर भोजन करते हैं। भोजन करते समय श्राहार करने के छः कारणों का विचार करते हैं। मैं किस कारण से भोजन करता हूँ, छः कारणों में से किस कारण से मैं तप न कर भोजन करने के लिये बाध्य हो रहा हूँ। यदि छः कारणों में से कोई भी कारण न हो तो साधु को उस दिन भोजन के लिये प्रवृत्ति ही न करना चाहिए, अथवा आहार लाने के बाद भी कारणाभाव में आहार अन्य साधुओं को देकर स्वयं उपवास करले ।
जैन श्रमणों को आहार करने के छः कारण नीचे मुजब बताये हैं।
बेअण वेया वच्च, इरि अट्ठाए असंयमट्ठाए । तहपाणवत्ति आए, छट्ट पुण धम्मचिंताए ॥३६५॥
अर्थ-आहार के बिना जो शारीरिक कष्ट उत्पन्न होता है, उसको रोकने के लिये साधु आहार करता है । आचार्य, बाल,
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