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( २५० )
जायड़ नवहा दसहा, एक्कारसहा दवालसहा ||४६७ ||
अर्थ :-- जो जिन कल्पिक हस्त भोजी और वस्त्रहीन होता है, उसकी उपधि रजोहरण, मुख वस्त्रिका रूप द्विविधा होती जो जिन कल्पिक पाणिपात्र होते हुए भी एक प्रावरण रखता है, उसकी उपधि विधि होती है । जो पाणिपात्र श्रमण दो प्रावरण रखता है उसकी उपधि चतुर्विध, और जो पाणिपात्र श्रमण तीन कल्प ( प्रावरण) रखता है, उसकी उपधि पंचविध होती है। इसी प्रकार पात्रधारी जिन कल्पिक की पात्र सम्बन्धी उपधि के सात प्रकार तथा रजोहरण मुख वस्त्रिका मिलने से पात्रवारी की उपधि के नत्र प्रकार होते हैं। और तीन प्रावरण रखने से ग्यारह और तीन प्रावरणों के बढ़ाने से पात्रधारी जिन कल्पिक की उपधि बारह प्रकार की बनती है ।
स्थविर कल्पिक की उपधि
ए ए चेव दुवालस मत्तग, अइरेग चोल पट्टो उ । एसो चउदस रूवो उवहीं पुरा र कप्पंमि ||४०० ||
अर्थः-- उपर्युक्त जिन कल्पिकों के बारह प्रकार की उपधि में चोलपट्टक और मात्रक ( द्वितीय पात्र ) दो उपकरण मिलने से स्थविर कल्पिकों की चौदह प्रकार की उपधि बनती है । इन चौदह उपकरणों के उपरान्त संस्तारक, उत्तर पट्टक आदि अन्य उपकरणों को भी जैन श्रमण आजकल काम लेते हैं, जिनको औपग्रहिक उपकरण कहा जाता है ।
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