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लिए आने वाला भिक्षा भोजन होता था । उस भोजन क दायाद बनने वाले भिक्षु चटोरे बन जायेंगे और आचाम जैसा साधारण भोजन छोड़ कर वे प्रणीत भोजन के पीछे पड़ेंगे । इसलिये बुद्ध उन्हें बार २ कहते थे कि तुम मेरा भोजन खाने की आदत न रक्खो, अगर तुम्हें मेरी बराबरी करना है तो धर्म-प्रचार में करो । भोजन में नहीं | धम्मदायाद सुत्त का यही तात्पर्य है ।
पालीकोश "अभिधानपदीपिका " में अन्नाद ( अन्न से बना हुआ खाद्य प्रदार्थ ) और आमिष ये दोनों नाम मांस के पर्याय बताये हैं । इससे भी अन्नाद और आमिष दोनों परस्पर एक दूसरे के पर्याय हैं और इन दोनों का पर्याय मांस है । इस लिये जहां आमिष और मांस शब्द के प्रयोग आते हैं, वहां प्रकरणानुसार अन्नमय खाद्य और तृतीय धातु प्राणि मांस ये दोनों अर्थ किये जा सकते हैं परन्तु बुद्ध के निर्वाणानन्तर यह तात्पर्य धीरे धीरे भूला जाने लगा और सैकड़ों वर्षों के बाद आमिष का अर्थ प्राण्यङ्ग मात्र रह जाने से बौद्ध धर्मियों में मांस भक्षण का प्रचार बहुत बढ़ गया । केवल बौद्धों में ही नहीं जैन और वैदिक प्रचार सम्प्रदायों में भी मांस, आमिष आदि प्राण्यङ्ग मांस को सूचन करने वाले शब्द पूर्वकाल में फलों मेवों और पिष्ट से बनाये हुए प्रणीत भोजनों को भी सूचित करते थे । इस विषय की यथास्थान विचारणा हो चुकी है, अतः यहां अधिक लिखना पुनरुक्ति मात्र होगा ।
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