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( २२० ) भुञ्जित्वां जिधिच्छा दबल्यं पटिबिनेत्वा एवं तं रत्तिं भुञ्जित्वा ....."पे ....."रत्तिं दिवं वीति नामेय्य अथ खो असु येव मे पुरिमो भिक्खू पुजतरो च पासंतरो च तं किस्स हेतु । तं हि तस्स भिक्खवे भिक्खुनी दीघरत्त संतुठिया सल्लेख. तया सुभरतया विरिया रम्भाय संवत्तिस्सति । तस्मातिह में भिकरनवे धम्म-दायाद भवथ मा आमिस दायाद । ___ अर्थः-( बुद्ध कहते हैं ) हे भिक्षुओ ! यहां मैं भोजन कर निपट चुका था, मैंने ले लिया था, और सुख में बैठा था, मेरे भिक्षान्न में से कुछ बचा था. वह छोड देने योग्य था। उस समय दो भिक्षु आये तुधालान्त और दुर्बल बने हुए। उनसे मैंने कहा हे भिक्षुओ। मैं भोजन कर चुका हूँ, जितना प्रयोजन था उतना
आहार मैंने ले लिया अब भिक्षान्न जो बचा हुआ है, वह फेंक देने योग्य है। अगर तुम्हारी इच्छा हो तो इसे तुम खा लो, अगर तुम न खाओगे तो मैं इसे बिना हरियाली के भूमि भाग में छुड़वा दूंगा, अथवा निर्जीव पानी में घुलवा दूंगा। बुद्ध की यह बात सुन कर उनमें से एक भिक्षु के मन में यह विचार आया यद्यपि भगवान भोजन कर चुके हैं इनको जितने की आवश्यकता थी उतना आहार ले लिया है अब जो आहार शेष बचा है वह फेंक देने योग्य है। इस आहार का हम भोजन न करेंगे तो भगवान इसे अल्प हरित भूमि में छुड़वा देंगे अथवा जन्तु रहित जल में घुलवा देंगे। परन्तु भगवान ने यह कहा है कि हे भिक्षु ओ ! तुम मेरे धर्म के दायाद बनो आमिप के दायाद न बनो।
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