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"इतिवृत्तक'' की उपयुक्त चार पंक्तियों में दान संविभाग अनु. ग्रह और याग में आमिष और धर्मदान आदि का तारतम्य बताकर श्रामिष की अपेक्षा से धर्म को प्रधानता दी है। यहां प्रयोग में लाया गया आमिष शब्द भोजन वाचक है, इसमें कोई शङ्का नहीं हो सकती । अन्न अथवा भक्त शब्द का प्रयोग न कर आमिष शब्द को पसन्द किया इसका कारण इतना ही है कि उस समय
आमिष प्रणीत भोजन (स्नग्ध ) मिष्टान्न के अर्थ में व्यवहृत होता था। भगवान बुद्ध के कहने का आशय यह है कि मिष्टान्न के दान, संविभाग, अनुग्रह और याग से भी धर्म का दान, संविभाग, अनुग्रह और याग करना श्रेष्ठ है ।
इसी प्रकार "म.झम निकाय” के 'धम्मदायाद सुत्त' में भी भगवान बुद्ध ने भोजन के अर्थ मे आमिष शब्द का प्रयोग करके भिक्षुओं को उपदेश दिया है। जो निम्नलिखिस उद्धरण से ज्ञात होगाः___ धम्मदाबाद में भिक्खवे भवथ, मा आमिस दायाद अस्थि में तुम्हेसु-अनुकम्पा-किंति में सावका धम्म दायाद भवेय्युनो
आमिस दायादाति । तुम्हे च भिक्खवे आमिस दायाद भवेश्याथनो धम्म दायादा ! तुम्हे पि तेन आदिस्तो भवेय्य आमिस दायदा सत्थु सावका विहरन्ति नो धम्मदाबादाति । अहं पितेन आदित्सो भवेश्यं आमिस दायाद सत्थु सावका विहरन्ति नो धम्म दायादाति तुम्हे च भिक्खने धम्मदायादा भवेच्याथ नो आमिसदायादा, तुम्हेऽपि आदिस्सा भवेय्याथ-धम्मदायादा सत्थु सावका
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