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ने तत्कालीन विदेह देश की राजधानी मिथिला के बाहर मणिनाग चैत्य में की थी। जब कि वहां उच्च वर्ण के मयुष्यों में कोई प्राण्यङ्ग मांस नहीं खाता था । इसी स्थिति में नक्षत्र भोजनों में बताया गया मांस भोजन पिष्टजनित मांस ही सिद्ध होता है।
इस अवतरण में जिन जिन नामों के साथ मांस शब्द आया है वे सभी वृक्षों के नाम हैं, ऐसा हमें वैद्यक निघण्टुओं से ज्ञात हुआ । “शालिग्रामोषध शब्द सागर" निघण्टु भूषण'' 'भाव प्रकाश निघण्टु" तथा "हेमचन्द्रीय निघण्टु” आदि से इस विषय में हमें बड़ी सहायता मिली है।
६-इस अङ्क के नीचे दिये हुए अध्यापक धर्मानन्द का अर्थ कितना असङ्गत और अघटित है, यह दिखाने के लिये आगे पीछे का पाठ लिखकर विषय को थोड़ा विस्तृत कर दिया है, जो आवश्यक था । उस समय भगवान महावीर की शारीरिक स्थिति कितनी गम्भीर थी यह दिखाये बिना धर्मानन्द के अभिप्राय को असंगत ठहराना कठिन था। जिनका शरीर छः महीनों से दाह ज्वर ग्रस्त है, बाह्याभ्यन्तर तापमान बहुत बढ़ा हुआ है और खून के दस्त हो रहे हैं, ऐसे महावीर अपने शिष्य के द्वारा मुर्गे का बासी मांस मंगवाकर खाने की इच्छा करें, यह बात वैद्यों, डाक्टरों के सिद्धांत से तो एक दम विरुद्ध है ही पर सामान्य बुद्धि के मनुष्य की दृष्टि में भी महाबीर की यह प्रवृत्ति आत्मघात ही प्रतीत होगी। यह परिस्थिति होने पर भी पटेल गोपालदास और उनके पृष्ठगामी अध्यापक कौशाम्बी महावीर की उस प्रवृत्ति को मांस खाने का
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