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________________ ( १६८ ) वितरण की क्या व्यवस्था होनी चाहिए, इत्यादि बातों का विवरण 'जैन श्रमण" नामक प्रकरण में दिया जायगा, अतः यहां नहीं लिखा जाता। उक्त अवतरण में बताई गई विकृतियों से चार विकृतियों पर थोड़ा सा विवेचन करेंगे। शेष क्षीर, दधि, सर्पि, तेल और गुड़ इन पांच पर विशेष वक्तव्य नहीं है । ___ नवनीत अर्थात् मक्खन विकृति को शास्त्रकारों ने शुभ विकृ. तियों में माना है । इसका यह अर्थ हुआ कि पहले जैन श्रमण जिन कारणों से दूध, दही, घृत, आदि विकृतियां लेते थे, उन्हीं कारणों से नवनीत विकृति भी ली जाती थी, परन्तु जब यह विकृति अनेक दिन की बासी मिलने लगी, तब जैनाचार्यों ने इसे अभक्ष्य मानकर लेना बन्द कर दिया, और अपने ग्रन्थों में लिख दिया कि मक्खन छाछ से बाहर होते ही बिगड़ने लगता है. इस लिये जैन श्रमणों को इसे भोजन में त्याज्य करना उचित है। ____ कहीं कहीं नवनीत के स्थान में दधिसर अर्थात् दही के ऊपर के चिकने पदार्थ मण्ड को विकृति माना है, जो नवनीत का ही पूर्व रूप है। ___मधु भी हिंसा जनित होने के कारण, कारण बिना न खाना चाहिए, ऐसी जैनाचार्यों ने मर्यादा बांधी है। मद्य-विकृति को आगे के लिये रखकर पहले हम मांस-विकृति पर थोड़ा सा लिखेंगे । ... यहां नवम विकृति के स्थान में आए हुए मांस शब्द का अर्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003119
Book TitleManav Bhojya Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1961
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Food
File Size19 MB
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