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________________ । १८१ ) जल आद सन्धान जल लेने में साधु को कोई आपत्ति नहीं थी। परन्तु समय जाते सन्धान जल कुछ अधिक खट्ठ बन जाते थे और ऐसे अम्ल जलों के पान से तृषा दूर नहीं होती थी, परिणाम स्वरूप श्रमणों को ऐसे जल लेते समय बडी सतर्कता रखनी पड़ती थी, इतना ही नहीं, परन्तु जरा सी शङ्का उत्पन्न होने पर वे उसे प्रथम अपने हाथ में थोड़ा सा लेकर उसे चखते और योग्य ज्ञात होने पर उसे ग्रहण करते । धीरे धीरे सौवीर यवोदकादि में मादकता प्रविष्ट हुई तब श्रमणों ने ऐसे जलों को रोगादि कारणों के बिना लेना बन्द कर दिया । “चुल्ल कप्प सुय” के निर्वाण समय तक अधिकांश मादक जल लेना बन्द हो गया था, केवल दीर्घ तपस्वी बीमार दुर्बल श्रमणों के लिये ऐसे जल परिमित मात्रा में ग्रहण करने की आज्ञा दी जाती थी। बाकी स्वस्थ और नित्य भोजन करने वाले श्रमण अत्यल्प तथा मादकता रहित सन्धान जल मिलते तो लेते अन्यथा धावन जलों से अपना निर्वाह करते थे। 'कप्पसूय" में जो मद्य का विकृति के रूप में निर्देश किया है, वह इस प्रकार के सामान्य मादकता कारक सौवीराम्ल यवाम्ल, तुषाम्ल जलों के लिये है, न कि सुरा और सौवीर विकट के लिये क्यों कि ऐसे तोब मादक जलों को ग्रहण करने की आज्ञा ही नहीं थी। कोई श्रमण सौवीर जल के बदले भूल से सौवीर विकट ले आता तो वह निर्जन्तुक स्थण्डिल भूमि में फेंकवा दिया जाता और लाने वाले को प्रायश्चित्त लेना पडता था। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003119
Book TitleManav Bhojya Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1961
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Food
File Size19 MB
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