________________
स्वस्थ मनुष्य भी निर्दिष्ट मात्रा में लिया करते थे । जिससे उनकी उदराग्नि व्यवस्थित बनी रहती थी।
तुषोदक आदि की बनावट निघण्टु ग्रन्थों में निम्न प्रकार की उपलब्ध होती है। "शालिग्राम निघण्टु भूषण' में सौवीर यवादकादि जलसौवीरं सुवीराम्लं यवोत्थं गोधूम-सम्भवम् । यवाम्लजं तुषोत्थं, तुषोदकञ्चापि कीर्तितम् ।। अर्थ-सौवीर, सुवीराम्ल ये दोनों पर्याय नाम हैं और गेहूँ तथा यवों से बनने वाले जल को यवोदक कहते हैं, गेहूँ तथा यव के छोकर से बनने वाले जल को तुषोदक कहते हैं। भावप्रकाश निघण्टुकार इस विषय में कहते हैं--- सौवीरं तु यवैरामैः पक्वैर्वा निष्तुषैः कृतम् । गोधूमैरपि सौवीर, माचार्याः केचिचिरे ॥८॥ सौवीरं तु ग्रहण्यर्शः कफघ्नं भेदि दीपनम् । उदावर्ताङ्ग मस्थि , शूलानाहेषु शस्यते ।।६।।
(भा० प्र०नि०) अर्थ-निष्तुप किये हुए कच्चे अथवा भूने हुए यवों के सन्धान से सौवीर बनाया जाता है, किन्हीं आचार्यों ने गेहुंओं से भी सौवीराम्ल बनाने का कहा है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org