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कालीन इतिहास बन चुका था, और पशुमांस के स्थान पिष्टमांस बनाकर मधुपर्क, अष्टका श्राद्ध आदि निपटा लेते थे । पशुवध कराने वाले दिन दिन अहिंसक होते जाते थे, इस कारण से यज्ञीय पशु पर तलवार चलाने वालों को प्रोत्साहित करने के लिए निम्न प्रकार से विधान करने पड़े हैं ।
मधुपर्के च यज्ञे च, पितृदेवतकर्मणि अत्रैव पशवो हिंस्या, नान्यत्रेत्यब्रवीन्मनुः ॥४१॥
_ “मनुस्मृति" अर्थ-मधुपर्क में यज्ञ में, पितृदैवत कर्म में ही ब्राह्मणों को पशुवध करना चाहिए अन्यत्र नहीं, ऐसा मनुजी ने कहा है ।
इस प्रकार मनुजी के नाम की दोहाई देकर प्रोत्साहित करने पर भी तलवार चलाने के लिये कोई तैयार नहीं होता था, तब नियुक्त को तलवार चलाने तथा मांस खाने को तैयार करने के लिये लिखना पड़ा |----
अनुमन्ता विशसिता, निहन्ता क्रय-विक्रयी । संस्कर्ता चोपहर्ता च, खादकश्च ति घातकाः ॥११॥
"मनुस्मृति" अर्थः-(अरे! अभिनियुक्त! तुम तलवार चलाने में हिचकिचाते क्यों हो, इस वध में आज्ञा देने वाला, उसके अङ्गोपाङ्गों को जुदा करने वाला, धान करने वाला, उसका मांस खरीदने वाला,
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