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वसेत्स नरके घोरे, दिनानि पशुरोमभिः । संमितानि दुराचारो, यो हन्त्यविधिना पशून् ॥१८० ॥ सर्वान् कामानवाप्नोति, हयमेधफलं तथा । गृहेऽपि निवसन् विप्रो, मुनिर्मास-विवर्जनात् ॥ १८१ ॥
'यानवल्क्य स्मृति' पृ० ६०-६१
अर्थ--अब मांस भक्षण तथा उसके त्याग सम्बन्धी विधि सुनो
प्राण-सङ्कट में, श्राद्ध तथा यज्ञ में नियुक्त होकर, ब्राह्मणों की इच्छा को मान देकर, पितरों तथा देवों को बलि चढाने के बाद शेष मांस को ग्वाने वाला दोषी नहीं होता। ___ जो दुराचारी मनुष्य वैदिक विधि के बिना पशु की हत्या करता है, वह हत पशु के रोम परिमित दिनों तक धोर नरक में बसता है।
___ जो ब्राह्मण मांस को छोडता है, उसकी सर्व इच्छायें पूर्ण होती हैं, अश्वमेध यज्ञ का फल मिलता है, और वह घर में रहता हुआ भी मुनि कहलाता है।
याज्ञवल्क्य स्मृति के उपर्युक्त वर्णन से यह निश्चित होजाता है कि याज्ञवल्क्य गौ को मेध्य मानते हुए भी गोवध के हिमायती नहीं थे, इतना ही नहीं बल्कि याज्ञिक विधि के बिना पशु-हत्या करने वालों को वे महापापी मानते थे, और मांस का त्याग करने
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