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हैं और इस आधुनिक वेद का इन प्राचीन नामों से किस प्रकार सम्बन्ध करने का प्रयत्न किया गया । इस वेद में बीस काण्ड हैं, जिनमें लग भग छः हजार ऋचायें हैं । इसका छठा भाग गद्य में है, और शेष अंश का छठा भाग ऋग्वेद के प्रायः दशवें मण्डल के सूक्तों में मिलता है । उन्नीसवां एक प्रकार से पहिले अठारह काण्ड का परिशिष्ट है, और बीसवें काण्ड में ऋग्वेद के उद्ध त भाग हैं।"
अध्याय १ पृ. १०४-१८७ ऋग्वेद के स्वरूप निदर्शन के बाद हम यह सूचित कर आये हैं कि मूल ऋक् संहिता में पिछले विद्वान् ब्राह्मणों ने अनेक सूक्त
और ऋचायें निर्माण कर उसमें मिलाई थीं, और यह क्रम सैंकडों वर्ष तक जारी रहा । परन्तु वेदोक्त अनुष्ठानों में कोई गड़बड़ी नहीं हुई, क्योंकि तब तक अनेक ब्राह्मण ऋषियों के पास वैतक निघण्टु
और निरुक्त विद्यमान थे। जिस कारण से नये विषयों का वर्णन करने में विशेष कठिनाइयां उपस्थित नहीं हुई। परन्तु धीरे धीरे इन निघण्टुओं और निरुक्तों का लोप हो गया और तब से वेदों का अर्थ ऋषियों की कल्पनाओं का विषय हो गया । जो शब्द और धातु लौकिक संस्कृत में व्यवहृत होते थे, उनके सम्बन्ध में तो विशेष कठिनाइयां नहीं आई, परन्तु केवल वेदों में ही प्रयुक्त होने वाले शब्दों तथा धातुओं के अर्थविवरण में विवरणकारों की बुद्धि द्वारा की गई मनःकल्पना ही साधनभूत रह गई थी। इस परिस्थिति में वेदाध्यापक विद्वानों द्वारा वेदों में जो अर्थ-विकृति
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