________________
लिए देते हैं। जो समाज हमारे सामने है, उसकी बुराइयां मिटनी चाहिए।
यदि समाज के लोग स्वयं सुलझा लें तो इन बातों को कहने के लिए साधुओं को समय न लगाना पड़े। फिर तो केवल आत्मा, परमात्मा, ध्यान की गम्भीर बातें ही बताएं। यथार्थ की भट्टी में ये सारी बातें हवा हो जाती हैं। हमारी भूमिका मजबूत नहीं है। पहले नींव को मजबूत करना होगा। धर्म-ध्यान को प्रभावित करने वाले आर्त और रौर्द्र ध्यान कम होने चाहिए।
एक बार प्रान्त के गृहमंत्रालय ने आदेश निकाला कि पुरानी जेल तोड़ दी जाए और उसके चूने-पत्थरों से नई जेल बनाई जाए। थोड़े दिनों के बाद फिर आदेश आया कि जब तक नई तैयार न हो जाए, पुरानी को न तोड़ा जाए। क्या कभी वह बन पाएगी?
हमारे समाज का जीवन भी इन विसंगतियों में गुजर रहा है। जिसे लड़कियां हैं, वह सोचता है, इनकी शादी कैसे करें? नौकरी वाले आदमी हैं, रुपये कहां से लाएं? समाज की व्यवस्था नहीं है। क्या करें और कैसे करें? उसी व्यक्ति के जब लड़के की शादी का प्रसंग आता है तब वह पिछला सारा चिन्तन भुला देता है। इस समय तो सोचता है, जितना धन टान लूं, वह अपना है। क्या वह हमारे जीवन की विसंगति नहीं है? आज जो तीव्र वेदना हो रही है, उसकी अनुभूति होनी चाहिए। जो आदमी बीमारी को बीमारी समझ लेता है, वह ठीक होने का प्रयत्न करता है। जो बीमार होने पर भी स्वस्थ मानता है, वह ठीक कैसे होगा? मैंने कहा और आपने सुन लिया इससे काम नहीं चलता। केवल वैचारिक भूमिका पर नहीं रहना है,
२
धर्म के सूत्र
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
___www.jainelibrary.org