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धर्म का सार्वभौम रूप-ध्यान
दो मित्र थे। एक का नाम था मिश्रा और दूसरे का नाम था वर्मा। एक बार मिश्रा वर्मा के घर गया। नीचे बैठे आदमी से पूछा-'वर्माजी कहां हैं?' उसने कहा-'ऊपर हैं।' ऊपर चढ़ने का दरवाजा बंद था। मिश्रा ने नीचे से आवाज दी। कुछ क्षणों बाद एक नौकर ने बरामदे में खड़े-खड़े कहा-'वर्माजी अभी घर पर नहीं हैं, बाजार गए हुए हैं। मिश्रा अपने घर चला गया।
एक दिन वर्मा मिश्रा के घर आया। दरवाजा बंद था। नीचे से पुकारा मिश्रा ने बरामदे में आकर कहा-'मिश्राजी अभी घर में नहीं हैं, बाहर गए हुए हैं। वर्मा बोला- 'अरे, सामने तो खड़े हो और इनकार कर रहे हो?' मिश्रा बोला-अच्छे मित्र बने! मैंने तो उस दिन तुम्हारे नौकर पर भी भरोसा कर लिया था और तुम ऐसे हो कि मेरे पर भी भरोसा नहीं कर रहे हो?'
आदमी अपने आपको नकार रहा है। उसका भरोसा उठ गया। आवश्यकता है कि यह भरोसा जमे, विश्वास जमे। धर्म का भी भरोसा उठ गया। आज के युवक को, आज के चिंतनशील और विचारशील युवक को धर्म पर भी भरोसा नहीं रहा और वह धर्म भी बरामदे में खड़ा-खड़ा अपने आपको नकार रहा
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धर्म के सूत्र
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