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धर्म और रूढ़िवाद
'त्वद्वक्त्रकांतिज्योत्स्नासु, निपीतासु सुधास्विव । मदीयैर्लोचनाम्भोजैः प्राप्यतां निर्निमेषता ॥'
आचार्य हेमचन्द्र ने भगवान महावीर की स्तुति करते हुए कहा है-भगवन्! मेरी आंखें निर्निमेष हो जाएं। आंखें पलकें मारती हैं, स्थिर नहीं रहतीं। आंखों का यह दरवाजा हर क्षण खुलता है और बन्द होता है। आंखों का यह दरवाजा भी स्थिर (निर्निमेष) हो जाए। बिना आकर्षण के स्थिर नहीं होता। आपके मुख की ज्योति का पान कर ये आंखें इतनी तृप्त हो जाएं कि फिर कोई भी वस्तु देखने की लालसा न रहे।
आचार्य ने इस माध्यम से अपने हृदय की भावना अभिव्यक्त की है। हमारे सामने कोई न कोई आदर्श चाहिए जिससे आंखें और मन स्थिर हो सकें, गतिविधियां केन्द्रित हो सकें।
एक खूटे के आसपास बैल घूमता है। परिधि के लिए केन्द्र चाहिए। बिना केन्द्र के परिधि नहीं होती। एक केन्द्र या आदर्श की जरूरत है। आदर्श क्या है? आत्मा। आदर्श तक पहुंचने की गति क्या है? आत्मा। उसका साधन क्या है? आत्मा। आचार्य योगेन्द्र ने लिखा है- 'जहिं तहिं जोयउ, तहिं
१४० धर्म के सूत्र
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