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आचार-संहिता प्रस्तुत की। वह सचाई यह है कि हम लोग चाहे धर्म के क्षेत्र में हों या शिक्षा के क्षेत्र में, सिद्धान्त को जितना महत्त्व देते हैं, उतना प्रयोग को नहीं। प्रवचन, उपदेश में विश्वास करते हैं, प्रयोग में नहीं। बहुत बड़ा प्रश्न है धर्म-क्षेत्र के सामने कि इतने धर्म-गुरु, धर्मोपदेशक और धर्म-ग्रंथ हैं फिर भी समाज बदल नहीं रहा है। इतनी विद्या की शाखाएं, इतने विद्यालय? इतने शिक्षक फिर भी विद्यार्थी बदल नहीं रहे हैं। इसका कारण है कोरा उपदेश । गीता का प्रवचनकार अनासक्त योग पर बहुत अच्छा बल देता है, किन्तु स्वयं अनासक्त नहीं बनता। जैन आगमों का एक व्याख्याता अहिंसा, करुणा, मैत्री आदि पर बहुत अच्छा प्रवचन दे देता है पर अपने स्वयं के जीवन में अहिंसा, परिग्रह का विकास नहीं करता। गीता के सिद्धान्त के साथ-साथ अनासक्त योग के जो प्रयोग जुड़े हैं उनका कोई आचरण नहीं करता, केवल व्याख्या करता है। अहिंसा और अपरिग्रह के प्रयोग नहीं किए जाते। इस विषय पर चिन्तन करते समय गुरुदेव के मन में यह बात आई कि हमें कोई ऐसा मार्ग खोजना चाहिए जिस पर चलने से हृदय-परिवर्तन हो सके। पुरानी भाषा में हृदय-परिवर्तन और आज की वैज्ञानिक भाषा में रासायनिक परिवर्तन। जब तक रासायनिक परिवर्तन नहीं होता, तब तक हजार बार पढ़ने और सुनने के बाद भी आदमी नहीं बदलता। मूल बात है भाव-परिवर्तन और भाव-परिवर्तन के साथ सम्बन्ध है हमारी अन्तःस्रावी ग्रन्थियों के रसायनों का।
साधना की दृष्टि से हमने प्रेक्षाध्यान का जो क्रम बनाया है, वह यह है कि कर्म से उत्पन्न होता है भाव और भाव ६२ में धर्म के सूत्र
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