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सुना है सरिता का आह्वान। एक सलिल तट दो हैं, पाया जीवन का सम्मान।
देह युगल है, इक है आत्मा, परमात्मा उपमान।। 1. जिज्ञासा है, क्या कहती थी, कल-कल जल की धारा,
क्या कहता था नीरव बन कर, पावन सरित किनारा।
लहर-लहर पर क्या वह अंकित, वत्सलता का गान।। 2. ज्ञान भिक्षु-सा, ध्यान भिक्षु-सा, भीखण जैसा तप हो,
हर मानव की जीभ-जीभ पर, भिक्षु-भिक्षु का जप हो।
भारिमाल से शिष्य विनयनत, गण में हो अम्लान।। 3. तुम उस तट पर, हम इस तट पर, सबका अपना तट है, किन्तु परस्परता का धागा, एक यही बस रट है।
माला के मनकों के जैसा, बने एक संस्थान ।। 4. जिन शासन में अनुशासन की, श्वास-श्वास में पूजा,
उच्छंखल की पूजा करता, वह मारग है दूजा।
कंठ-कंठ में प्यास जगाई, सफल हुआ अभियान ।। 5. सेवा और समर्पण का पथ, तेरापंथ निराला,
अंतिम शिक्षा की वाणी से, भरा अमृत का प्याला। पद्मासन में योगीश्वर ने, किया सहज प्रस्थान।। 6. तेरापंथ महान बना है, पा तुलसी-सा नेता,
नए-नए आयाम खुले हैं, अद्भुत विश्व विजेता।
कौन करेगा लेखा-जोखा, अनगिन हैं अवदान ।। 7. दिल्ली का पावस प्रवास वर, जन-जन की यह भाषा,
अब केवल तुलसी गुरु से ही, समाधान की आशा। चरमोत्सव की पावन वेला, बन जाए वरदान ।। भिक्षु दिवस की पावन वेला, 'महाप्रज्ञ' वरदान ।।
लय : यही है जीने का विज्ञान
संदर्भ : भिक्षु चरमोत्सव दिल्ली, भाद्रव शुक्ला 13, वि.सं. 2051
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चैत्य पुरुष जग जाए
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